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हम सब ऐसे हैं ।
* भगवान तीर्थ के आदि स्थापक हैं । इस विशेषण से वेदों का अपौरुषेयपन निरस्त हुआ ।
कितनेक यह मानते हैं कि केवलज्ञान होने पर तुरन्त ही जीव मोक्ष में ही जाता हैं, संसार में रह ही नहीं सकता । इसका खण्डन भी इस विशेषण से होता है ।
सूर्य स्वभाव से प्रकाश देता है, उस प्रकार तीर्थंकर स्वभाव से ही तीर्थ की स्थापना करते हैं । यदि ऐसा न करें तो उनके कर्मों का क्षय नहीं होता ।
जिसके सहारे से जीव तर जाये वह तीर्थ कहलाता है ।
भयंकर मगरमच्छो और मत्स्यो (राग-द्वेष) आदि से भरे हुए इस सागर (संसार) को तरने के लिये तीर्थ (घाट) की आवश्यकता होती है । उसे बांधने वाले तीर्थंकर हैं । जन्म, जरा एवं मृत्यु यहां पानी है।
* निगोद के जीव एक सांस में १७-१/२ बार जन्म-मरण करते हैं । विचार करो कि जन्म-मरण का कितना दुःख है ? ऐसे अनन्त पुद्गल-परावर्त हमारे भूतकाल में गुजरे । अब भविष्य में गुजरना है ? भविष्य का सृजन अपनी आराधना पर आधारित है।
* संसार-सागर में मिथ्यात्व-अविरति की अत्यन्त ही गहराई
भयंकर कषाय रूप पाताल है । मोह का भयंकर चक्रावर्त है । विचित्र दुःख भयंकर जलजन्तु है । राग-द्वेष का पवन खलबली मचाता है ।
प्रबल मनोरथ रूप ज्वार है । * मिथ्यात्व का एक भी अंश होता है तब तक हमें देह में आत्मबुद्धि रहती हैं ।
अपनी आत्मा को पूर्ण रूप में नहीं मानना भी मिथ्यात्व है।
जब तक देह में आत्म-बुद्धि करेंगे, तब तक यह देह बारबार मिलता ही रहेगा ।
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कहे कलापूर्णसूरि - ३)