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उपमिति में यही बात समझाई गई है। गुरु की अनुपस्थिति में वह भिखारी बार-बार गन्दा अनाज खोलता है तब वह निवेदन करता है कि 'गुरुदेव ! कुछ ऐसा करिये, कोई ऐसी परिचारिका दें जो मुझे गन्दा खाने से रोके ।'
गुरु की प्रेरणा ने उसे सद्बुद्धि नामक दासी प्रदान की, जो उसे मलिन अनाज खाने से रोकने लगी ।
यही विवेक हैं ।
* 'भगवन् ! आप मोक्ष में गये हैं, फिर भी नाथ कहलाते हैं । योग-क्षेम करते तो प्रतीत नहीं होते, फिर नाथ कैसे हुए ?' पूज्य देवचन्द्रजी ने सातवे भगवान के स्तवन में ऐसा प्रश्न उठाया
जहां वीतरागता हो वहां करुणा कैसे होगी ? ऐसे प्रश्न हमारे भीतर उठते हैं, परन्तु समझ लो कि भगवान चमत्कारों के भण्डार हैं, भगवान में कृपालुता है उस प्रकार कठोरता भी है; निर्ग्रन्थता है उस प्रकार चक्रवर्तित्व भी है। ऐसे एक-दो नहीं, अनन्त विरोधी धर्म भगवान में रह सकते हैं । यह बात स्याद्वाद के ज्ञाताओं को समझानी नहीं पड़ती । भगवान जगत् के जीवों के प्रति कृपालू है और कर्मों के प्रति कठोर है ।
भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से परस्पर विरोधी धर्म भी एक वस्तु में घटित हो सकते हैं ।
पूज्य आनंदघनजी म. का वह स्तवन 'शीतल जिनपति ललित त्रिभंगी' परस्पर विरोधी गुणधर्मो का सूचक है ।
पूज्य देवचन्द्रजी का मजेदार प्रश्न है - 'संरक्षण के बिना आप नाथ हैं, धन के बिना आप ईश्वर है, धनवान हैं । _ 'संरक्षण विण नाथ हो, द्रव्य विण धनवंत हों ।'
पानी वापरते समय यह पंक्ति अभी ही मुझे याद आई । बार बार घोट घोट कर याद की हुई ये पंक्तियां कैसे भूलें? इसलिए बार-बार कहता हूं कि ये तीन चौबीसी विशेषतः आप कण्ठस्थ करें ।
अप्राप्त गुणों को प्राप्त करानेवाले और प्राप्त गुणों की रक्षा करने वाले भगवान नाथ हैं । हमारे भीतर गुण नहीं आते हों
(कहे कलापूर्णसूरि - ३Wooooooooooooooooom १४३)