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* 'मुझे दीक्षा लेनी है, परन्तु उसके साथ शत्रुता है वह मैं छोड़नेवाला नहीं हूं।' यदि ऐसा कोई व्यक्ति कहे तो कृपया उसे दीक्षित न करें । जो दूसरों के साथ शत्रुता रखता है वह क्या आपके साथ नहीं रखेगा ? दीर्घकाल तक चलनेवाला एक भी जीव के साथ वैरभाव अनन्तानुबन्धीकषाय की सूचना है ।
दीक्षा ली तब सामायिक की प्रतिज्ञा ली थी । सामायिक से क्या तात्पर्य है ? समस्त जीवों के साथ उपशमभाव । इसके बिना सामायिक कैसे आयेगी? इसके बिना संयम का पालन सम्भव ही नहीं है । 'सामायिक' शब्द अनेक विशिष्ट अर्थों से परिपूर्ण है।
श्रुत - सम्यक् - चारित्र - ये तीनों सामायिक एक सामायिक शब्द से अभिव्यक्त होते हैं ।
साम, सम्म एवं सम - ये तीन प्रकार की सामायिक इसमें हैं ।
* . भगवान के साथ दो प्रकार की (एश्वर्योपासना एवं माधुर्योपासना) उपासना में भगवान के साथ जुड़ाव माधुर्योपासना से ही होता है । माता-पिता-भाई-बन्धु आदि समस्त सम्बन्धों का आरोप भगवान में करने से ही माधुर्योपासना उत्पन्न होती
* 'मैं जयणा नहीं रखू तो मेरा ही वध होगा ।' ऐसा भाव रख कर समस्त जीवों के साथ एकता रखनी है ।
'आचारांग' में उल्लेख है - 'तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मन्नसि ।' 'जिसे तू मारता है वह तू ही है ।' आगे जाकर सिद्धों के साथ भी एकता रखनी है । जीवास्तिकाय पदार्थ को इस सन्दर्भ में समझना है । मात्र जानने के लिए जानना नहीं है ।
छःओं जीवनिकाय का ज्ञान न हो, उन पर करुणा उत्पन्न न हो, उनकी जयणा जीवन में न आये तब तक साधु-जीवन कैसा? इसीलिए तो 'दशवैकालिक' के चार अध्ययन (जिनमें चौथा अध्ययन छ: जीवनिकाय हैं) पढ़ने अनिवार्य हैं । इसके बिना बड़ी दीक्षा नहीं होती ।
अनन्तप्रदेशी जीवास्तिकाय में एक प्रदेश भी कम हो तब तक जीवास्तिकाय नहीं कहलाता । एक प्रदेश को भी पीड़ा होती हो तो वह अपनी ही पीड़ा समझनी है । (१०00wwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)