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आपको एक गांव की घटना बताता हूं - हम वहां प्रातः आठ बजे पहुंचे । श्रावकों की विनती हुई - उपाश्रय में पधारें, गोचरी लेने के लिए पधारें । दो घर होते हुए भी अपार भक्ति । परमात्मा की प्रतिमा नैनाकर्षक थी ।
__ मैं अभक्त हूं, अतः परमात्मा की प्रतिमा कहता हूं । वास्तव में तो परमात्मा ही कहना चाहिये । मुझे लगता हैं - ‘मन्दिर में नहीं, समवसरण में बैठा हूं।'
- ज्ञानविमलसूरि आपको क्या कभी मन्दिर में समवसरण याद आता है । __ शंखेश्वर - अहमदाबाद का वह मार्ग, निरन्तर साधु-साध्वीजियों के विहार चालु रहते हैं ।
हम विहार करके गये, इतने में ही फिर दस साध्वीजी आये । साथ में डोली आदि के आदमी भी थे ।
उनकी भी इतने ही प्रेम एवं आदर से भक्ति की । विहार के समय कहते - 'गुरुदेव ! मेरे आंगन में पगले करने पड़ेंगे ।' ___ मैं ने कहा, 'तेरे वहां पगले नहीं करूंगा तो कहां करुंगा ?'
दुकान में ५-७ हजार का माल देख कर लगा, 'क्या कमाता होगा ? क्या वहोराता होगा ?
परन्तु भीतर श्राविका ने रोटियों की थप्पी उठाई । मैं चकित हो गया । मैं गोचरी जाता तब कभी कभी गोचरी बढ़ भी जाती । दूसरा सब गिनती में आता, परन्तु भक्ति का वजन गिनना रह जाता ।
एक बजे साइकल वाले को गांव की भक्ति के विषय में पूछने पर उसने कहा, 'आज मुझे मेरी मां याद आई, माता के प्रेम से उन्हों ने मुझे भोजन कराया है ।
दोपहर में तीन बजे चाय के लिए विनती आई । मैं ने पूछा : 'आपका कैसे चलता है ?'
'प्रभु की कृपा से तथा आपकी कृपा से, आप कल्पना करो उसकी अपेक्षा भी अधिक सरलता से जीवन-नैया चलती है।'
___ 'एक काम कर । हमारी तो तू भक्ति करेगा, परन्तु हमारे साथ वाले आदमियों की भक्ति तू बाहर से कर, बिल हमारे पास भेज देना, शहर के लोगों को लाभ मिलेगा ।'
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