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कमरे में नित्य नौ स्मरणों का तीनों समय पाठ करे ।
प्रभु-भक्त जो निर्देश करे, वह प्रभु का निर्देश है । यदि तदनुसार करें तो प्रभु को वैसा करना अनिवार्य हो जाता
पू. मुनिश्री भाग्येशविजयजी : शाश्वत गिरिराज की गोद में इतने विशाल श्री चतुर्विध संघ के दर्शन कदाचित् जीवन में प्रथम बार हुए हैं । बोलने का प्रसंग भी पहली बार है ।
* एक सन्त के पास एक युवक कहने लगा : 'अनेक वर्षों से एक तमन्ना है कि मुझे प्रभु के साथ मिलाप करना है, मार्ग बतायें ।'
'सामने जो वृक्ष है उसके पांच पत्ते तोड़ कर ला ।' सन्त के कहते ही उस व्यक्ति ने वैसा ही किया । _ 'पांचो पत्ते पुनः वृक्ष पर लगा कर आ ।' 'गुरुदेव ! तोड़ तो सकता हूं, परन्तु जोड़ नहीं सकता ।' जोड़ना कठिन है, तोड़ना सरल है । आप सभी साथ जुड़े, इसीलिए प्रथम मैत्री भावना है ।
अनन्त जीव रह सकें वैसे दो ही स्थान हैं - निगोद और निर्वाण ।
___ जीवों के साथ अभेद करे वह निर्वाण में और भेद करे वह निगोद में जाता है।
दशवैकालिक टीका में हरिभद्रसूरिजी : 'साधुत्वं किं नाम ?' 'सर्व जीव - स्नेह - परिणामत्वं साधुत्वम् ।'
साधुता अर्थात् प्रेम के वर्तुळ का विस्तार, संकोच नहीं । पहले साधु घर का था, अब सर्व का हो गया है ।
आप भी जितने अंशों में विस्तरते हैं, उतने अंशों में साधु
'समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।' सामायिक में प्रेम का वर्तुल विकसित होता है ।
चण्डकौशिक के प्रसंग में भगवान ने ये ही बात बताई है। चण्डकौशिक को प्रभु मिल गये और उसका उद्धार हो गया । कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwwwwwwww ९७)