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________________ अपात्र को शास्त्र श्रवण कराना अर्थात् चढ़ते हुए ज्वर में औषधि देना । इस प्रकार औषधि दोगे तो उल्टी अधिक हानी होगी । जिसकी बुद्धि शान्त नहीं हुई, जो सतत उफान एवं विह्वलताओं में जी रहा है, उसके पास ऐसी बातें करना व्यर्थ है । ऐसे मनुष्यो के पास भगवान की कृपा अथवा करुणा की बातें करेंगे तो भी उल्टा अर्थ लगायेंगे - बैठे हैं न भगवान ! करेंगे यह सब ! भगवान करुणा के सागर हैं ! - स्वयं निष्क्रिय होकर बैठ जायेंगे । उसके लिए भगवान की करुणा को आगे धरेंगे । भगवान की करुणा की बात करने का भगवान के भक्त के अतिरिक्त अन्य किसी को अधिकार नहीं है। * प्रभु का भक्त भगवान के मन्दिर में जाकर निसीहि पूर्वक समस्त सांसारिक प्रवृत्तियों का त्याग करके, तीन प्रदक्षिणा देकर, तीन बार भूमि को पूंजकर भगवान को गद्गद् होकर नमस्कार करता भक्ति का प्रकर्ष ऐसा बढ़ता है कि हृदय में भक्ति का सागर हिलोरे लेता है । चन्द्रमा को देखकर सागर उछलता है, उस प्रकार प्रभु को देखकर भक्त का हृदय उछलता है । _ 'जिन गुण चन्द्र किरण शुं उमट्यो, सहज समुद्र अथाग; मेरे प्रभु शुं प्रगट्यो पूरम राग ।' - उपा. यशोविजयजी भक्ति की अधिकता से ऐसा वेग आये कि नेत्रों में से हर्ष के आंसू आयें । सम्पूर्ण देह रोमांचित हो उठे, साढ़े तीन करोड़ रोमावलि भगवान के नाम से खड़े हो जायें । आज भगवान की भक्ति करने का अवसर प्राप्त हुआ है। उनके चरणों में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। कैसी दुर्लभ है यह भगवान के चरणों की सेवा ? मेरे जैसे रंक को यह प्राप्त हो गई ? मैं अपने भाग्य का क्या वर्णन करूं ? कितने ही भवों के पुन्य एकत्रित हुए होंगे तब ऐसे भगवान मिले हैं। (कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmommmmmmmmmmmmm ५७)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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