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का परित्याग करते जैन बने । आज भी समस्त ओसवाल उस देवी को (सच्चाई मात को) मानते हैं ।
ओसिया में राजकुमार को सांप ने डस लिया । उस समय दैवी-प्रभाव से पू. रत्नप्रभसूरिजी ने उसे निर्विष कर दिया । उनके प्रभाव से उस समय एक लाख राजपूत वीर संवत् ७० में जैन बने ।
वे ही सब ओसवाल बने । ओसवालों का इतना प्रभाव था कि जोधपुर आदि स्थानों पर मंत्री आदि के पदों पर इन की ही नियुक्ति होती थी।
इसके द्वारा मैं गुरु-तत्त्व की महिमा बताना चाहता हूं ।
ये साध्वियों का समूह भी कोई कम उपकार नही करता । __ आचार्य हरिभद्रसूरिजी नहीं होते तो 'ललित विस्तरा' कहां से प्राप्त होता ?
याकिनी साध्वीजी नहीं होती तो हरिभद्रसूरिजी कहां से मिलते ? यह साध्वीजी का उपकार है।
मुनिचंद्रसूरिजी नहीं हुए होते तो उनकी पंजिका के बिना 'ललित विस्तरा' किस तरह बराबर समझ में आता ?
भुवनभानुसूरिजी नहीं हुए होते तो परम तेज के बिना 'ललित विस्तरा' का विस्तारपूर्वक वर्णन कैसे जाना जाता ?
ये समस्त गुरु भगवंतो का हम सब पर महान् उपकार है।
गुरु मोक्ष के अवन्ध्य कारण कहे गये हैं । वन्ध्य अर्थात् सन्तानहीन - जिसके सन्तान उत्पन्न न हों । वन्ध्य आम पर फल नहीं लगते । गुरु ऐसे वन्ध्य नहीं, अवन्ध्य कारण हैं । अवश्य फल-दाता अवन्ध्य कारण कहलाते है । अतः 'गुरु-बहुमाणो मोक्खो ।' कहा गया है ।
गुरु-समागम का प्रथम ही प्रसंग याद करो । जब गरु ने आपको समझाने का प्रयत्न किया था, आपको नियम लेने का समझाया था । मैं अपनी स्वयं की ही बात करता हूं । ऐसे नियमों के कारण ही मेरा धर्म में प्रवेश हुआ । .
गुरुने मधुर वचनों से बुलाकर समझाकर शपथ नहीं दी होती तो क्या इस स्टेज तक हम पहुंचे होते ? (कहे कलापूर्णसूरि - ३00mmswwwssssmasoom १३१)