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कारण मिले हैं, फिर भी (ज्ञान-दर्शन आदि) वह याद न आये तो क्या हमारी करुणता नहीं है ?
हम जितनी सावधानी द्रव्य-प्राण की रखते हैं, उतनी ही यदि भावप्राणों की रखें तो काम हो जाये । मुझ में भाव-प्राण हैं उसका पता भी असंज्ञी को नहीं लगता । इसीलिए धर्म का सच्चा अधिकारी संज्ञीपंचेन्द्रिय है। __ इन ग्रन्थों के द्वारा भाव-प्राणों की पुष्टि होगी ।
* 'नमस्कार करता हूं, नमस्कार किया है' यह न कह कर 'नमस्कार हो' यह कहा उससे स्व की असमर्थता बताना ही है । असमर्थता जानें तो ही मांगने की इच्छा होगी न ? पुत्र पिता के पास मांगता है, भक्त भगवान के पास मांगता है ।।
भक्त की यही मांग है कि प्रभु ? मेरा एक ही भाव नमस्कार हो जाये तो काम हो जाये । इसीलिए लिखा है - 'दुरापो भावनमस्कारः ।' मनुष्य-जन्म की तरह भाव-नमस्कार अत्यन्त ही दुर्लभ
आत्मा में यदि बीजाधान हुआ हो तो ही भाव नमस्कार आ सकता है।
यदि किसान विधिपूर्वक बीज बोये तो ही वह फल प्राप्त कर सकता है। किसान पहले हल चलाता है, फिर बीज बोता है । बीज यदि न बोये तो क्या उगेगा ?
अपने हृदय में भी धर्म-बीज नहीं बोया गया हो तो फल नहीं मिलेंगे। धर्मात्माओं की प्रशंसा ही धर्म-बीजों का वपन है। जीवन में धर्म भले ही न हो परन्तु उसकी प्रशंसा आ गई तो सच्चा धर्म आयेगा ही ।
भाव-धर्म सदा बाद में ही आता है। उससे पूर्व उसकी प्रशंसा ही आती है। हमें आज यह धर्म मिला है, जिसका मूल कारण यही है कि हम उसकी प्रशंसा कर चुके हैं ।
प्रशंसा करना अर्थात् वह वस्तु जीवन में लाने की इच्छा करना । वास्तव में तो 'मुझे प्रिय है उसका अर्थ ही यह होता है कि - 'मुझे चाहिये ।' आप किसी जेवर की प्रशंसा करते हो उसका अर्थ यह होता है कि मुझे ऐसा जेवर (आभूषण) (कहे कलापूर्णसूरि - ३00oooooooooooooooo १३५)