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चाहिये । किसी का बंगला आप को प्रिय लगता है उसका अर्थ इतना ही है कि वह बंगला आप को चाहिये । धर्म प्रिय है, उसका अर्थ यही होता है कि मुझे धर्म की आवश्यकता है ।
फल की आशा से ही बीज बोया जाता है ।
मुक्ति रूपी फल की आशा से ही धर्म की प्रशंसा होती
है ।
यहां पालीताना में चातुर्मास क्यों हुआ ? पहले पालीताना में चातुर्मास करना प्रिय लगा । प्रिय नहीं लगा होता तो चातुर्मास होता ही नहीं ।
आज आप क्यों शिक्षित हैं ? कारण यही हैं कि पहले आप को शिक्षा प्रिय लगी । आज आप धनाढ्य क्यों हैं ? कारण यह है कि पहले आप को पैसे प्रिय लगे, धनवान बनना प्रिय लगा । जो वस्तु प्रिय लगने लगती है, उसके लिए अथक पुरुषार्थ होगा ही ।
धर्म प्रिय लगने लगता है तब सर्व प्रथम यह चिन्तन चलता है कि वह कैसे प्राप्त होता है ? तत्पश्चात् धर्म-श्रवण होता है और उसका पालन होता है । फल स्वरूप देव- मनुष्य रूप सद्गति प्राप्त होती है। इसी धर्म-बीज के अंकुर, तना, शाखा, फूल आदि समझें ।
ये सभी आनुषंगिक फल हैं । मुख्य फल तो मोक्ष ही है । किसान के लिए मुख्य फल अनाज है, घास नहीं ।
धर्मी के मन से मुख्य फल मोक्ष है, स्वर्ग आदि नहीं । इसीलिए प्रधान फल - रूप लक्ष्य से कदापि च्युत न हो जायें ।
धर्म का चरम एवं परम फल केवल परम-पद है, यह कदापि न भूलें । विहार में जिस प्रकार अमुक गांव आदि का लक्ष्य हो तो मार्ग में चाहे जितनी विनती आयें, आकर्षण आयें. फिर भी हम रुकते नहीं है, उस प्रकार यहां भी परम-पद के अतिरिक्त कहीं भी रुकना नहीं है ।
मार्ग मार्ग ही कहलाता है, भले चाहे जितना आकर्षण हो । इसी कारण से समझदार व्यक्ति मंजिल तक पहुंचे बिना बीच में कहीं भी रुकता नहीं है ।
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5 कहे कलापूर्णसूरि - ३