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अपनी मंजिल आत्म-घर है, परम-पद है । यह संसार तो मार्ग है, स्टेशन है । यदि आपकी भाषा में कहूं तो ससुराल है। ससुराल में मेहमान नवाजी से आकर्षित होकर आप यदि अधिक रुकना चाहें तो क्या दशा होती है ?
'सासरा सुख वासरा, दो दिन का आसरा; ज्यादा रहेगा जो,
खायेगा खासड़ा ।' इस संसार में यदि अधिक समय तक रहे, दो हजार सागरोपम तक में मोक्ष में नहीं गये (क्योंकि त्रस काय की स्थिति दो हजार सागरोपम से अधिक नहीं है) तो इस संसार में जूते ही खाने के हैं ।
ये सब बातें यहां सुनते हैं, परन्तु स्थान पर जाते ही भूल जाते हैं । सब गुरु पर डाल देते हैं । आप यदि अपनी ही आत्मा की चिन्ता नहीं करोगे तो दूसरा कौन करेगा ? मन-वचन-काया की चौकीदारी हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा ?
भगवान मार्ग बताते हैं, गुरु प्रेरणा देते हैं,
परन्तु चलना तो हमें ही पडेगा न ? निमित्त कारण चाहे जितना पुष्ट हो, परन्तु उपादान तैयार ही नहीं हो तो क्या हो सकता है ?
_भगवान तो प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब ये जीव मेरे पास आयें, परन्तु हमें ही कहां शीघ्रता है ? सम्यग्दर्शन के द्वारा आत्मानुभूति की झलक प्राप्त की हैं ? नहीं प्राप्त की हो तो शान्ति से हम कैसे बैठ सकते हैं ? एक बार उक्त झलक प्राप्त की हो तो क्या संसार हमें आकर्षित कर सकता है ?
मंजिल नहीं मिले तब तक पथिक रुकता नहीं है । अनाज नहीं मिले तब तक कृषक रुकता नहीं है । तो परम-पद प्राप्त न हो तब तक हम कैसे रुक सकते हैं ?
कृषक घास से सन्तुष्ट नहीं होता तो भौतिकता से हम किस प्रकार सन्तोष मान सकते हैं ?
अन्य कुछ नहीं तो धर्म की सच्ची प्रशंसा से प्रारम्भ तो करें । कि यहीं पर गड़बड़ी है ? कहे कलापूर्णसूरि - ३wooooooooooooooomans १३७)