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भाव-नमस्कार सम्यग्दर्शन सूचित करता हैं । इससे पूर्व अपुनबंधक आदि में प्रशंसा देखने को मिलेगी । प्रशंसा सदा गुणवान की, धर्मात्मा की होगी क्योंकि गुण अथवा धर्म गुणवान अथवा धर्मात्मा के अतिरिक्त अन्यत्र देखने को नहीं मिलते ।
दूसरे के धर्म की प्रशंसा का अर्थ यह हुआ कि वह धर्म मुझ में भी आये, ऐसी इच्छा हुई । दूसरे का भोजन उत्तम लगा, उसका अर्थ यह हुआ कि मेरे घर पर नित्य ऐसा भोजन बना कर खाने की इच्छा हुई ।
* नमोऽस्तु । यहां इच्छा योग है। मुझ में भाव-नमस्कार करने की शक्ति नहीं है, परन्तु इच्छा अवश्य है । मुझे कब ऐसा नमस्कार मिले ? यह इच्छायोग है ।
इच्छा हुई यह भी बड़ी बात है । धर्म के अभिलाषियों को भी अनुभवी मनुष्य धन्यवाद देते हैं । __'धन्य तू आतमा जेहने, एहवो प्रश्न अवकाश रे ।'
- पूज्य आनन्दघनजी ___ तुझे शान्ति की चाह हुई ? तुझे ऐसी प्रसन्नता प्राप्त करने की इच्छा हुई ? अधन्य व्यक्ति को ऐसी इच्छा भी नहीं होती ।
क्या तुझे खाने की इच्छा हुई ? अब तेरा रोग गया । रोग में खाने की इच्छा नहीं होती । संसार-रोग की तीव्रता में धर्म की इच्छा भी नहीं होती । विषय-अभिलाषा का अतिरेक कदापि धर्म की ओर जाने नहीं देता ।
जो खाने-पीने में से ऊंचे नहीं आते, वे पशु धर्म नहीं कर सकते, क्योंकि प्राथमिक इच्छा ही उनकी पूर्ण नहीं हुई । जिन में विषय-कषाय की तीव्रता है, वे धर्म की इच्छा नहीं कर सकते । क्योंकि अभी तक उसकी चेतना अन्धकार में भटक रही है। उसकी चेतना अभी तक अत्यन्त निम्न स्तर की है। उसे शिखर की कल्पना कहां से होगी ? उसे परम का प्रकाश कहां से प्रिय लगेगा ? वह तो अन्धकार में ठोकरें खा रही है । अन्धकार में घूमनेवाले उल्लू को प्रकाश अच्छा नहीं लगता, उस प्रकार भवाभिनंदी को धर्म अच्छा नहीं लगता । ऐसा व्यक्ति कदम-कदम पर विषय-कषायों की प्रशंसा करता ही रहता है । (१३८ womoooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)