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________________ लाकड़िया - पालिताना संघ, वि.सं. २०५६ ६-८-२०००, रविवार सावन शुक्ला -७ * भक्ति में उल्लास की वृद्धि होने से सम्यग् दर्शन निर्मल बनता है । ग्रन्थि-भेद तक पहुंचाने वाली भक्ति है । * गृहस्थ-जीवन में हम सभी पूजा कर के आये हैं । अब पूजा नहीं करते, इसका अर्थ यह नहीं है कि पूजा व्यर्थ है । कोलेज के विद्यार्थी भले क-ख-ग, बारहखड़ी छोड़ दे, परन्तु बालकों के लिए वह आवश्यक है । * आवश्यक सूत्र साधना के मूल हैं । विद्यमान आगमों में सर्व प्रथम आवश्यक-सूत्र हैं । यह मूल आगम है । उस पर नियुक्ति आदि भी बहुत ही है । ये चैत्यवन्दन सूत्र भी आवश्यकों के अन्तर्गत ही हैं । आवश्यक नियुक्ति, चूर्णि, टीका, विशेषावश्यक भाष्य आदि आवश्यकों का ही साहित्य है। इससे ही इसका महत्त्व समझा जाता है । सामायिक केवल उच्चारण करने से नहीं आती । उसके लिए भक्ति चाहिये। चउविसत्थो आदि पांच आवश्यकः भक्ति-वर्धक ही हैं। * साधु-साध्वियों का एक पल भी आर्त्तध्यान - रौद्रध्यान में क्यों जाये? इसके लिए ही तो चार बार स्वाध्याय, सात बार चैत्यवन्दन (१५२ 6 GS 5 GS 6 Cass I CD 5 6 saas a 5 कहे कलापूर्णसूरि - ३
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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