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करने का कहा गया है। चैत्यवन्दन करने से स्वाध्याय में प्रेम बढ़ता है । स्वाध्याय करने से चैत्यवन्दन के प्रति प्रेम बढ़ता है। दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं है। 'जिम जिम अरिहा सेविये रे, तिम तिम प्रगटे ज्ञान सलूणा' - पैंतालीस आगम की पूजा में ऐसा इसलिए लिखा है कि ज्ञान, प्रभु-भक्ति के साथ जुड़ा हुआ है। ज्यों-ज्यों आप अरिहंत की आराधना करते जाओगे, त्यों त्यों आपके ज्ञान में वृद्धि होती जायेगी।
* भाव-नमस्कार सिद्ध हो जाने पर भी नमस्कार इसलिए करना है कि अभी तक उसे अधिक निर्मल, अधिक प्रकर्षयुक्त बनाना है।
'मेरे गुणस्थानों में अभी तक जो अपूर्णता है, वह मिटे, मुझ में अधिक निर्मलता प्रकट हो ।' ऐसे भाव के साथ छद्मस्थ गणधर भी यह 'नमुत्थुणं' बोलते हैं ।
* 'नमः' का अर्थ पूजा होता है । पूजा का अर्थ द्रव्यभाव का संकोच होता है । नियुक्ति के आधार पर ये अर्थ किये हैं, ये घर के अर्थ नहीं हैं ।
__ अजैनों ने पुष्प, आमिष, स्तोत्र एवं प्रतिपत्ति - पूजा के ये चार प्रकार बताये हैं, जो क्रमशः अधिक श्रेष्ठ हैं । वीतराग को भी प्रतिपत्ति पूजा होती हैं । प्रतिपत्ति अर्थात आज्ञा-पालन ।।
देशविरति को चारों प्रकार की पूजा होती है ।
सराग-संयमरूप सर्व विरति को दो प्रकार की (स्तोत्र एवं प्रतिपत्ति) पूजा होती है । ग्यारहवे, बारहवे और तेरहवे गुणस्थानक पर केवल प्रतिपत्ति पूजा होती है । प्रतिपत्ति अर्थात् सम्पूर्ण आज्ञा का पालन । आज्ञा का जितना कम पालन करें उतनी प्रतिपत्ति पूजा में त्रुटि समझें ।
* पूज्य देवचन्द्रजी ने बारहवे भगवान के स्तवन में कहा है कि प्रशस्त एवं शुद्ध दो प्रकार की भावपूजा (प्रतिपत्ति पूजा) है।
(१) प्रशस्त पूजा में प्रभु का गुण-गान होता है । प्रभु के प्रति का विशिष्ट अनुराग भक्त को उनका गुणगान करने के लिए प्रेरित करता है। प्रशस्त भावपूजा की आराधना से विशुद्ध भावपूजा का सामर्थ्य प्रकट होता है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३00smomosomoooooooooo १५३)