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(२) शुद्ध भाव पूजा : स्वभाव में सम्पूर्ण रमणता के समय मुनि को शुद्ध भाव पूजा होती है ।
____ 'ज्ञानदशा जे आकरी, ते चरण विचारो;
निर्विकल्प उपयोगमां, नहीं कर्मनो चारो ।' इस दशा में शुद्ध भाव पूजा होती है ।
* पतंग को आप डोर से खींच कर ला सकते हैं, परन्तु इस प्रकार खींच कर गुणस्थानक नहीं ला सकते । इसके लिए आत्म-द्रव्य को जानना पडता है ।
'जिहां लगे आतम द्रव्यर्नु, लक्षण नवि जाण्यु; तिहां लगे गुणठाणुं भलूं, किम आवे ताण्यु ?'
- पूज्य उपा. यशोविजयजी म. * हमारे मन-वचन-काया तो साधन मात्र हैं; भले वे भगवान को झुकें, परन्तु सचमुच तो आत्मा झुकती है । आत्मा झुके तो ही काम का है । मन आदि तो पुद्गलों से बने हुए हैं । उन्हें प्रभु के साथ क्या लेना-देना ? उसका उपयोग करके आत्मा को प्रभु-प्रेम से रंग देना है, प्रभु के प्रेम में सराबोर कर देना है । दूल्हा वह है, मन आदि तो बाराती हैं ।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : आत्मा एवं चेतना में क्या अन्तर है ? पूज्यश्री : गुण एवं गुणी की तरह किंचित् भेद है ।
आचार्य भगवान प्रश्न पूछे तो मुझे उत्तर तो देना ही चाहिये । जिज्ञासा में तीव्रता आये तो ही नित्य आने की इच्छा हो । अभी तक जिज्ञासा अल्प है अतः कभी-कभी ही आ जाते हो ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : चाबुक लगाई ।
पूज्यश्री : दुःख हुआ हो तो 'मिच्छामि दुक्कडं ।' __ अन्य दर्शन वाले मीरा आदि प्राप्त कर लेते हैं तो हम क्यों नहीं प्राप्त कर सकते ? प्रभु-प्राप्ति का आनन्द महापुरुषों ने छिपाया नहीं है । संस्कृत के ज्ञाता न हों वे भी आनन्द प्राप्त कर सके, इसीलिए गुजराती कृतियों की रचना की है। ज्ञान के साथ यहां कोई सम्बन्ध नहीं है । भाषा के साथ भी इन का कुछ भी लेना-देना नहीं है। अशिक्षित भी (निरक्षर भी) प्रभु-प्रेम प्राप्त कर सकता है । ये केवल विद्वानों की ठेकेदारी नहीं है। [१५४ 00wwwwwwww w wwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)