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________________ यहां उपस्थित हैं जो सभी सिद्धाचल की स्पर्शना हेतु आये हुए हैं । स्वयं भगवान आदिनाथ आते हों तो अन्य क्यों न आयें ? सामुदायिक रूप से सबकी भावना हुई कि सब एकत्रित होकर क्यों न मैत्री के तन्तु को सुदृढ करें ? भगवान संघ तथा सकल जीवराशि का उपकार मानते हैं, क्योंकि उनके प्रति करुणा से ही वे भगवान बने हैं । भगवान को भगवान बनाने वाली करुणा है । यह करुणा ही उन्हें समस्त जीवों के प्रति विनय करने के लिए प्रेरित करती है । भगवान भी विनय नहीं छोड़ते तो हम कैसे छोड़े ? आज मैत्री - भावना पर बोलना है । मैं ने कहा, 'पहले हम जीकर बतायें, फिर सबको कहेंगे ।' मैत्री- भाव से ओत-प्रोत बना अपना संघ कितना सुशोभित लगता है ? - आज वात्सल्य-भाव, मैत्री भाव जो मृतप्रायः बन गये हैं, उन्हें पुनर्जीवित करना पड़ेगा । चार भावनाओं का स्वरूप स्वयं भगवान ने कहा है । धर्म यदि कल्पवृक्ष है तो ये चार भावनाऐं उसके मूल हैं । शास्त्रों के मन्थन से निकाला हुआ मक्खन हैं ये चार भावनाऐं । जो यह जानते नहीं हैं, इन्हें जीवन में लाते नहीं हैं, वे धर्म की आशा छोड़ दें । - जिन भावनाओं के बिना धर्म मूल्यहीन गिना जाता है, उन भावनाओं का महत्त्व कितना है ? परहितचिन्ता मैत्री दूसरों के हित का विचार मैत्री है । हम केवल अपना ही विचार करते हैं । वही मोह है । यह धर्म मोह के चंगुल में से सर्व प्रथम छुड़ाता है । चतुर्विध संघ का प्रत्येक सदस्य अर्थात् मोहराजा के विरुद्ध लड़ने वाला शूरवीर योद्धा । मोह को परास्त करने का लक्ष्य नहीं हो वह जैन नहीं है । अनादिकाल से चार कषाय हमारे भीतर अधिकार जमा कर बैठे हैं । जब तक कषायों से मुक्ति नहीं मिले तब तक संसार से मुक्ति नहीं मिलेगी । ३२ रु.6000 ॐ कहे कलापूर्णसूरि -
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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