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दोषों को हटाने के लिए प्रयत्न करना है, गुण तो भीतर विद्यमान ही हैं । दोषों का पर्दा हटने पर गुण अपने आप प्रकट होंगे ।
क्रोध के आवेश के समय क्षमा नहीं होती, यह बात नहीं है । वह भीतर दबी हुई होती है । अतः लगता है मानो क्षमा है ही नहीं ।
सचमुच, क्षमा न हो ऐसा कदापि होता ही नहीं । क्षमा आदि तो हमारे स्वभाव रूप है। यह न हो ऐसा संभव ही नहीं है।
भगवान को बुलाओ, समस्त गुण आयेंगे । भगवान को भूलो, समस्त गुण भाग जायेंगे ।
मेरा तो यह अनुभव है । भगवान जाते हैं तो सब कुछ जाता है । फिर भगवान को मनाने पड़ते हैं, विनती करनी पड़ती
'आज मारा प्रभुजी ! सामु जुओ ने, रूठडा बाल मनावो रे !'
हरिभद्रसूरिजी यह बात अपने भीतर जचाना चाहते हैं ।
सिंहत्व जाने हुए सिंह को बकरा या ग्वाला (चरवाहा) डरा नहीं सकता, उस प्रकार अपना परमात्मत्व पहचान गई आत्मा को मोह आदि डरा नहीं सकते ।
* 'गुरुत्वं स्वस्य नोदेति ।'
गुरुत्व कब प्रकट होता है ? क्षपक श्रेणी में प्रकट होता है । गुरुत्व अर्थात् परमात्मत्व । भीतर का परम तत्त्व प्रकट होने के पश्चात् गुरु की आवश्यकता नहीं रहती । तब तक गुरु आवश्यक
क्षपक श्रेणि के समय इतनी भयंकर ध्यान की आग होती है कि विश्वभर के जीवों के कर्म उसमें डाले जायें तो सब भस्म हो जायें, परन्तु ऐसा संभव नहीं है ।
* दीपक अपना प्रकाश अन्य दीपक को दे सकता है, उस प्रकार ज्ञान आदि गुण दूसरे को दिये जा सकते हैं । गुण आप दूसरों को देंगे तो कम नहीं होंगे । ऋण पर देने वाले की रकम घटती नहीं और लेने वाला कमा लेता है, ऐसा होता है न? वहां कदाचित् ऐसा न भी बने, परन्तु यहां तो बनता ही है । देने वाले का घटता नहीं और लेने वाला समृद्ध हुए बिना रहेगा नहीं । ८०nmmmmmmmmmmmmmmmmm कहे कलापूर्णसूरि - ३)