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गुणों का केवल बहुमान करते रहें । गुणों का आगमन स्वयमेव प्रारम्भ हो जायेगा । गुण प्राप्त करने का यही मुख्य उपाय है। (१) नमुत्थुणं अरिहंताणं : ये दो स्तोतव्य सम्पदा हैं । (२) आइग : आदि तीन, साधारण-असाधारण हेतु सम्पदा । (३) पुरिसुत्त : आदि चार, असाधारण हेतु सम्पदा । (४) लोगुत्त : आदि पांच, सामान्य उपयोग सम्पदा । (५) अभयदयाणं : आदि पांच, उपयोग सम्पदा की करण सम्पदा । (६) धम्मदयाणं : आदि पांच, विशेषोपयोग सम्पदा (उपयोग अर्थात्
उपकार) (७) अप्पडि : स्वरूप सम्पदा । (८) जिणाणं : आदि चार आत्मतुल्य परफल कर्तृत्व सम्पदा । (९) सव्वन्नूणं : आदि तीन अभयसम्पदा ।
* शिष्य कहता है : आप की कृपा से मैंने प्राप्त किया ।
गुरु कहते हैं : आयरिय संतियं - मेरा नहीं, यह तो आचार्य भगवन् का है।
गणधर कहते हैं : सब भगवान का है। हमें भगवान के द्वारा ही मिला है।
* प्रभु ने धर्म पर सम्पूर्ण अधिकार जमाया है ।
आपको धर्म प्राप्त करना हो तो भगवान के पास जाना ही पड़ता है। अन्य कहीं से नहीं मिल सकता । इसी लिए कदमकदम पर अपने यहां 'देव-गुरु-पसाय' बोला जाता है । यह बोलने के लिए नहीं है, वास्तविकता है ।
विषयों से निवृत्ति, तत्त्व-चिन्ता या सहज अवस्था में स्थिति, ये सब गुरु की कृपा के बिना मिल नहीं सकता । यह आप जानते हैं न ? गुरु के माध्यम से यहां भगवान ही देते हैं ।
'शुद्धात्मद्रव्यमेवाऽहं' यह बोलकर शुद्ध आत्म-द्रव्य पकड़ लें । अब गुरु अथवा किसी की आवश्यकता क्या ? यह मानकर देव-गुरु को छोड़ मत देना । ज्ञान का विपरीत अर्थ नहीं निकालें ।
निन्दा-स्तुति, तृण-मणि, वन्दक-निन्दक और मोक्ष अथवा संसार दोनों पर समभाव रहे वह समता है। ऐसी समता भगवान कहे कलापूर्णसूरि - ३aasansoooooooooooooo00 ८१)