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________________ हमारे सुमेरपुर के चातुर्मास में एक श्राविका कहती, 'मेरी सास अनपढ थी परन्तु ४५ आगमों के बोल उन्हें कण्ठस्थ थे । ज्ञानसुन्दरजी द्वारा प्रकाशित थोकड़े (पहले थोकड़ों की हस्तलिखित प्रतें थी) उन्हें कण्ठस्थ थे । मात्र सुनकर कण्ठस्थ किये थे । मुनि श्रुतधर कहलाते हैं, तो श्रोता श्रुतिधर कहलाते हैं । एकाग्र हों तो ही यह सम्भव हो सकता है । भगवती को जयकुंवर गंध हस्ती की उपमा दी गई है। पूज्य लब्धिसूरिजी ने गंध हस्ती आदि के विशेषणों में ही चार महिने समाप्त कर दिये थे । गंधहस्ती के पास दूसरे हाथी नहीं ठहरते, उस प्रकार भगवती के पास विघ्न नहीं ठहरते । इसीलिए मंगल हेतु बार-बार भगवती का वांचन होता रहता था । * अलग होने का अनुभव करना ही मोह है। जीवास्तिकाय का कथन है - हम एक हैं । लोक स्वरूप भावना भी यही है। हिन्दुस्तान के समस्त नागरिक भारतीय के रूप में एक हैं, उक प्रकार जीवत्व के रूप में हम सब एक हैं । गुजराती आदि के रूप में अलग, उस प्रकार भेदनय से जीव भिन्न भी गिना जाता आप देह रूप हैं और विश्वरूप भी हैं, उसकी संवेदना करें - ऐसा भगवान का कथन है । 'अरूपी' इसलिए कहलाता है कि पहले रूप ही प्रतीत होता है, शब्द आदि बाद में सुनाई देते हैं । उदाहरणार्थ बिजली का प्रकाश पहले दिखाई देता है, गर्जना बाद में सुनाई देती है । धर्म अर्थात् परोपकार । जो दूसरों के लिए उपयोगी नहीं बनता वह धर्मी नहीं है। धर्मी बलवान या समृद्ध अच्छे । . पापी निर्बल या दरिद्र अच्छे । * व्याख्यान में माला फेरें तो नहीं चलता । नींद करो तो फिर भी चलता है । नींद करते समय कम से कम हमारे शब्द तो कानों में पड़ेंगे । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 00000000000 0000 ३५७)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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