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की तरफ से है । मूर्ति घड़ी जा सकती है, प्रभु नहीं ।
अत्यन्त अधिक क्रिया के द्वारा बहुत फल प्राप्त करना चाहते हैं, परन्तु जब तक प्रभु को प्रधानता नहीं देंगे तब तक समस्त क्रियाएँ अहंकार का ही पोषण करेंगी । अहंकार का चरम फल हताशा है।
यह अहंकार ही नष्ट करना है, अतः 'नवकार' में 'नमो' प्रथम है । 'हे प्रभु ! आप ही हैं, मैं नहीं' इसका स्वीकार 'नमो' में
प्रभु की ओर से धर्म आ रहा है । मैं धर्म उत्पन्न करता हूं - ऐसा ख्याल में नहीं रखना है ।
गणि पूर्णचन्द्रविजयजी म. : क्या साधु-जीवन में हताशा होती है ?
उत्तर : मात्र वेष-क्रिया हो तो हो सकती है, सच्चे साधु को हताशा नहीं होती ।।
किसी भी भक्त कवि ने प्रभु की खुशामत नहीं की, परन्तु हृदय के भाव व्यक्त किये हैं । * 'तुं गति तुं मति आशरो, तुं आलंबन मुज प्यारो रे...'
- पू. उपा. यशोविजयजी म. पांव मेरे, गति तेरी । हाथ मेरे, स्पन्दन तेरा । नाक मेरा, सांस तू । जीभ मेरी, स्वाद तू । नाक मेरा, गन्ध तू ।
शुभ तू, अशुभ मैं । जब तक यह स्वीकार नहीं करोगे, तब तक आपका धर्म आपको नहीं मिलेगा, नहीं फलेगा । इनका स्वीकार करो तो ही धर्म मिलता है और फलता है ।
जब 'मैं' मर जाये, तब ही शुद्ध धर्म आयेगा, अन्यथा नहीं । अशुद्ध धर्म संसार का कारण है । प्रभु का धर्म मोक्ष का कारण है । संसार खड़ा हो वहां दुःख, हताशा होगी ही । दैनिक क्रिया इसीलिए करनी हैं । कहे कलापूर्णसूरि - ३
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