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हूं | आप विद्वान वक्ता हैं । हजारों व्यक्तियों को यह बात पहुंचायेंगे, ऐसा विश्वास है ।
सर्व प्रथम हृदय को मैत्री एवं भक्ति से भावित बनायें, फिर सकल संघ में इस बात का प्रचार करें ।
* प्रभु के नाम आदि का आलम्बन हम लें, पवित्रता का संचार भगवान करेंगे ।
जल का स्वभाव है, सफाई करने का ।
प्रभु का स्वभाव है, पवित्रता फैलाने का । (पूज्यश्री के जाने के पश्चात् )
पू. मुनिश्री धुरन्धरविजयजी म. :
* पूज्यश्री ने आनन्द दायक बातें कही । कदाचित् किसी को नहीं भी सुनाई दी हों । प्रभु के साथ एकता करनेवाले के अश्राव्य शब्द भी प्रभाव डालते ही हैं । अश्राव्य ध्वनि के तरंगो का भी प्रभाव होता है । मेरे गुरुदेव पू. पं. भद्रंकरविजयजी म. तथा पूज्यश्री का मुख्य स्वर यही है, इतने वर्षों की साधना के पश्चात् भी इतने हताश क्यों ? स्वयं को हलकी दृष्टि से क्यों देखना ? कारण यह है कि प्रभु के धर्म के साथ सम्बन्ध हुआ नहीं है । क्रिया करते हैं । उसके द्वारा धर्म प्राप्त करना है, परन्तु गर्व है कि मैं धर्म करता हूं । धर्म मैं क्या करूं ? प्रभु कराता है । धर्म हमसे उत्पन्न नहीं होता, इसीलिए धर्म प्रभु का है, अपना नहीं । अपना धर्म नहीं, प्रभु का धर्म कल्याण करता है ।
यह बात समझनी है ।
तृप्ति मिले यह अपनी क्रिया का फल है या अन्न का फल ? स्पष्ट बात है कि अन्न का फल है । हाथ-मुँह की क्रिया का फल नहीं है । प्यास बुझाने का स्वभाव जल का है, अपनी क्रिया का नहीं ।
क्रिया अपनी परन्तु कर्तृत्व पानी आदि का है । क्रिया अपनी है परन्तु धर्म प्रभु का है ।
जब तक अपनी प्रधानता है तब तक धर्म नहीं मिलेगा । प्रभु की प्रधानता के पश्चात् ही धर्म मिलेगा ।
मूर्त्ति घड़नेवाले हम हैं, परन्तु फिर परम तत्त्व का फल प्रभु www कहे कलापूर्णसूरि- ३
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