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पूज्यश्री इसीलिए यह सब कहते हैं -
* भक्ति के द्वारा प्रभु को और मैत्री के द्वारा प्रभु के समस्त जीवों को स्वीकार करो । भगवान के जीवों को नहीं स्वीकार करें, वह भी नहीं चलेगा । परिणीता स्त्री पति को ही स्वीकार करती है, दूसरों को स्वीकार नहीं करे वह नहीं चलता ।
प्रभु ने जिन्हें निज स्वरूप में देखा, उन जीवों को स्वीकार नहीं करो तो नहीं चलेगा । जब धर्म होता है तब तू (प्रभु) ही होता है।
* प्रभु कहां नहीं है ? नाम आदि के रूप में सर्वत्र है । एक भी आकाश-प्रदेश ऐसा नहीं है जहां अनन्त द्रव्य-अरिहंत न हों । निगोद में विद्यमान अनन्त जीव अरिहंत बनने वाले ही हैं । सभी पास ही हैं । आप जब उस स्वरूप में स्वीकार करो तब - वे कार्यकारी बनते हैं । मूर्ति को जब भगवान के रूप में स्वीकार करो तब वह कार्यकारी बनती है। उस प्रकार चारों ओर अरिहंतो के मध्य हम हैं ।
__ आपके गुणों की वृद्धि करनी भगवान का स्वभाव है । कमल के विकास का स्वभाव जैसे सूर्य का है ।
शरीर, उपकरण आपके परन्तु शक्ति उनकी (प्रभु की) जिसकी शक्ति हो उन्हों ने ही कार्य किया कहलाता है ।
मुंबई आप गये, परन्तु आप गये या गाड़ी गई ? मुख्य कौन ? गाड़ी या आप ? गाडी के स्थान पर आप प्रभु को देखें ।
गाडी में बैठे उन सबको मोक्ष में ले जाने का उत्तरदायित्व भगवान का है ।
___ यही शरणागति है । कुछ भी अच्छा हो जाये तो तुरन्त ही 'मैंने किया' भाव आ जाये ।
'तूने क्या किया ?' तेरे माध्यम से भगवान ने किया ।
तू क्या दर्शन करेगा ? भगवान ही भगवान को देखता है । हमारे भीतर रहे हुए भगवान ही भगवान को देखते हैं ।
पूजा भी प्रभु की प्रभु ही करते हैं । अशुद्ध चेतना प्रभु की पूजा नहीं कर सकती । राजा भिखारी को क्या गोद में बिठायेगा ?
आप स्वयं स्वयं को अशुद्ध करते हैं, अशुद्ध मानते हैं । (७६ 05 am somwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)