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जामनगर में जिनालय में एक बहन ने मुझे कहा - 'मुझे अभिग्रह दीजिये । मैंने पूछा : 'किस बात का अभिग्रह देना है ?' _ 'यह नहीं बताऊंगी ।'
'तो मैं इतना भोला नहीं हूं कि आपको अभिग्रह दूं ।' मैंने इनकार किया ।
कोई किसी की हत्या करने का भी अभिग्रह ले ले तो भारी पड़ जाये ।
* श्रोताओं की योग्यता के लिए तीन बातें सोचनी हैं : (१) क्या उसके हृदय में बहुमान है ?
ग्रन्थ - ग्रन्थकार के प्रति बहुमान आवश्यक है । बहुमान नहीं रखने वाले व्याख्यान सुनने आयें होंगे तो वे भूलें ही निकालेंगे ।
प्राप्त कराने के नशे में चाहे जिसे देना मत । (२) विधिपरता : विधि का आदर होना चाहिये ।
(३) उचितवृत्ति : गृहस्थों की आजीविका, साधुओं की गोचरी आदि औचित्यपूर्ण होनी चाहिये । यदि औचित्यपूर्ण न हों तो योग्यता नहीं कहलायेगी ।
* 'प्रभु ! मैं मूढ़ हूं। हित-अहित जानता नहीं हूं। आपकी कृपा से हित का जानकार बनूं । अहित से बचूं । अब मैं आराधक बनूं । सबके साथ उचित व्यवहार करुं ।'
- पंचसूत्र * चाहे जैसा व्यवहार करेंगे तो भी मोक्ष मिल जायेगा, क्या यह मानते हैं ? सर्व प्रथम गुरु एवं गुरु जो बतानेवाले हैं उन शास्त्रों के प्रति बहुमान होना चाहिये; अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा ।
अनधिकारी व्यक्ति को सिखाने में अनेक हानियां होने की सम्भावना है । अनधिकारी को विधि की बात कहेंगे तो उल्टी बात भी पकड़ सकता है । विधि होती ही नहीं है तो अब छोड़ ही दो न ? यह मानकर सब छोड़ देंगे ।
इसीलिए अयोग्य आत्माओं के लिए ज्ञानी कदापि प्रयत्न नहीं करते । अन्यथा जमालि या गोशाला जैसों की भगवानने उपेक्षा नहीं की होती ।
कहे कलापूर्णसूरि - ३0000000000000000000 १७)