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आया हुआ मुहूर्त्त नहीं लिया जा सके, कभी विलम्ब हो जाये तो समझें दीक्षार्थी के ललाट में जो समय लिखा हुआ था वह आ गया है ।
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कभी तीन नवकार सुना कर भी दीक्षा दी जा सकती है । * दीक्षा - विधि सम्पन्न करते समय चैत्यवन्दन आदि की क्या आवश्यकता है ? ऐसे प्रश्न के उत्तर में यही कहा है कि चैत्यवन्दन आदि क्रिया शुभ भाव न हों तो उत्पन्न करती हैं । उत्पन्न हो गये हों तो स्थिर रखती है ।
प्रश्न : ऐसा किसने कहा है कि चैत्यवन्दन से शुभ भाव होते ही हैं ? कभी नहीं भी हों । विनयरत्न आदि जैसे कोई माया से भी करते हैं ।
उत्तर : यदि विधिपूर्वक चैत्यवन्दन किया जाये तो शुभ भाव उत्पन्न होते ही हैं । चैत्यवन्दन विधिपूर्वक हों इसके लिए तो यह प्रयास है, ताकि जानकार बनकर कपट- माया आदि को त्याग करे । प्रश्न : कोई लब्धि आदि के लोभ से भी चैत्यवन्दन आदि करे तो उसमें शुभ भाव कैसे आयेंगे ?
उत्तर : सूत्रों के अनुसार विधिपूर्वक आशंसा आदि दोषों से रहित होकर अच्छी तरह चैत्यवन्दन आदि क्रिया करे तो शुभ भाव आते हैं । ऐसा न करे, करना चाहे भी नहीं, वह इस चैत्यवन्दन का अधिकारी ही नहीं है ।
प्रश्न : तो फिर अधिकारी को ही यह सुनायें ।
उत्तर : हम अधिकारी को ही सुनाना चाहते हैं, अनधिकारी को नहीं, अपात्र को नहीं ।
कितनेक व्यक्ति ऐसे अपात्र होते हैं कि कोई विधि समझायें तो क्रोधित होते हैं और क्रिया ही छोड़ देते हैं । एक भाई को प्रतिक्रमण की विधि समझाई तो प्रतिक्रमण करना ही छोड़ दिया । यह अपात्रता है । ऐसा व्यक्ति इस चैत्यवन्दन सूत्र के लिए अधिकारी नहीं कहा जाता ।
* तदुपरान्त यह भी देखना है कि जो देश- विरति अथवा सर्व-विरति धर्म देते हैं उसका पालन करने में क्या वे समर्थ हैं ? कइ ऐसे भी होते हैं जो कहते हैं, 'मुझे अभिग्रह दीजिये | परन्तु पूछने पर कहते नहीं है ।' तो उन्हें नहीं दे सकते ।
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