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हमने दीक्षा ली तब पूज्य सिद्धिसूरिजी विद्यमान थे । पूज्यश्री स्वयं २५० साधु-साध्वियों के नायक होते हुए भी पूर्ण रूप से पूज्य बापजी महाराज को समर्पित थे ।
मैं ने स्वयं देखा है
राधनपुर के संघ की चातुर्मास की
विनती थी ।
पूज्य बापजी महाराज ने लिखा
-
'वहां चातुर्मास कर सकते
हैं ।'
यह कोई आज्ञा नहीं कहलाती, यह मान कर उन्हों ने पूज्य बापजी म. की निश्रा में चातुर्मास करने के लिए विहार किया । जेठ महिने की भयंकर तेज गर्मी में पहले ही मुकाम पर (गोचनाद मे) स्वास्थ्य अत्यन्त बिगड़ने के कारण राधनपुर के श्रावक स्वयं पूज्य बापजी म. के पास से आज्ञा - पत्र ले आये । फिर वह चातुर्मास सांतलपुर में हुआ ।
उनका जीवन हमने तो अपनी आंखों से देखा है । आणंदजी जैसे महान् पण्डित आकर किसी की ओर से घंटों तक तर्क करते तब पूज्य श्री का एक ही वाक्य में उत्तर होता, 'आपकी बात सत्य है, परन्तु हम तो पूज्य बापजी म. करते हैं उस प्रकार करते हैं ।' एक घंटे के तर्कों का उत्तर वे एक ही वाक्य में दे देते थे ।
उनकी ब्रह्मचर्य के प्रति निष्ठा कैसी थी ?
राधनपुर में साध्वीजियों को योगोद्वहन कराते समय वेलजीभाई को कहा, 'यहां बैठो ।' कुछ समय के बाद कहा, 'अब जाओ ।' 'परन्तु कारण क्या ?'
'इस समय कोई पुरुष नहीं था, अतः मैं ने आपको यहां बिठाया ।"
हलवद में पूज्य कान्तिविजयजी ने देखा, 'साध्वीजी को वे जो आज्ञा देते, वे तुरन्त 'तहत्ति' करके उसे स्वीकार करते । स्त्रीजाति इतनी आज्ञांकित ?
पूज्यश्री का कितना प्रभाव ?
वे कहते, 'सचमुच, ये तो कलिकाल के स्थूलभद्र हैं । पूज्यश्री को शिष्यों आदि की कोई तमन्ना नहीं थी । उसके (कहे कलापूर्णसूरि ३
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