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आदि स्थानों पर आगमों की वाचनाएं भी ली थी ।
__पंन्यास पदवी लेकर पूज्यश्री पलांसवा पधारे तब पूज्य जीतविजयजी म. स्वयं भी श्रावकों के साथ सामैया में आये थे और कारण बताते हुए बताया था कि मैं तेरे लिए नहीं, तेरे पद का सम्मान करने के लिए आया हूं ।
गुरु का कितना वात्सल्य होगा ? शिष्य की कैसी भक्ति होगी ?
ये ऐसे प्रसंगो से ज्ञात होता है । 'चंदा विज्झय' में वर्णित बात 'विनय सीखना है, ज्ञान नहीं । विनय आयेगा तो ज्ञान आयेगा ही' पूज्यश्री में चरितार्थ हुई प्रतीत होगी ।
"गुरु बहुमाणो मोक्खो ', 'पंचसूत्र' की यह बात भी पूज्यश्री में स्पष्ट प्रतीत होगी ।
गुरु के प्रति बहुमान रखना नहीं और हम मुक्ति की आशा रखते हैं । मुक्ति तो क्या मिलेगी ? मुक्ति का मार्ग भी नहीं मिलेगा ।
दशवैकालिक में विनय-समाधि शब्द आते हैं । विनय से ऐसी समाधि, ऐसी प्रसन्नता प्रकट होती है कि जिसकी समानता देव भी नहीं कर सकते ।
पूज्यश्री के विकास का मूल विनय में था ।
उनको नजर से देखने वाले समकालीन साध्वीजी चतुरश्रीजी आदि ने देखा था कि पूज्यश्री में विनय की इतनी पराकाष्ठा थी अपने चार गुरुजनों (दादा गुरु पू. जीतविजयजी, पू. गुरुवर्यश्री हीरविजयजी, पू. सिद्धिसूरिजी, पू. मेघसूरिजी) के मुंह से 'कनकविजयजी ! यहां आओ' इस वाक्य का 'क' अक्षर सुनते ही चाहे जैसा कार्य छोड़ कर, हाथ जोड़ कर वे बालक की तरह विनीत मुद्रा में उपस्थित हो जाते ।
वि. संवत् १९८५ में भोयणी तीर्थ में पूज्य बापजी म., पूज्य सागरजी म. आदि के हाथों आपकी उपाध्याय पदवी हुई और वि. संवत् १९८६ में पूज्य गुरुवर्यश्री हीरविजयजी स्वर्गवासी हुए ।
वि. संवत् १९८९ में अहमदाबाद में आचार्य पदवी हुई ।
दीक्षा के योगोद्वहन से लगाकर सभी योगोद्वहन पूज्य सिद्धिसूरिजी ने कराये थे । (२४२ 00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)