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कतिपय व्यक्ति दृढ़ संकल्प वाले होते हैं - 'देहं पातयामि कार्यं वा साधयामि ।' उनके समान दृढ़ संकल्प वालों से ही यह शासन चला है ।
दृढ़ संकल्प वाले कुमारपाल जैसे एकाध आत्मा ने क्या किया ? यह हम जानते हैं कि अहिंसा तो मेरी माता है । इसका पालन मेरे देश में होना ही चाहिये ।
कसाइयों और मच्छीमारों ने शिकायत की तो उन्हें तीन वर्षों के लिए आजीविका बांध दी, परन्तु अहिंसा का प्रवर्तन तो कराया ही ।
दृढ़ संकल्प क्या नहीं कर सकता ? अपना संकल्प सिद्ध करने के लिए ही उन्हों ने युवावस्था में चौथे व्रत की प्रतिज्ञा स्वीकार की ।
वि. संवत् १९९२ की माघ शुक्ला-१५ के शुभ दिन भीमासर में २३ वर्ष की युवा-आयु में उनकी दीक्षा हुई ।
पलांसवा के ठाकुर की बुद्धिमान् कानजी को बैरिस्टर बनाने की इच्छा थी, परन्तु भावी जैनाचार्य बनने वाले कानजीभाई ने ऐसी ओफर सादर ठुकरा दी ।
दीक्षा अंगीकार करने के बाद विनय, विवेक, त्याग, वैराग्य आदि गुणों की वृद्धि होने के साथ ज्ञानवृद्धि भी होने लगी ।
विनयपूर्वक सीखी हुई विद्या विवेक उत्पन्न करती है ।
विवेक वैराग्य लाता है, वैराग्य विरति लाता है, विरति वीतरागता लाती है और वीतरागता विदेह-मुक्ति प्रदान करती
विनय, विवेक, वैराग्य जहां हों वहां वीतरागता दूर नहीं रहती । यहां (पालीताणा) आने के बाद दादा कितने दूर ?
वि. संवत् १९७५ में उन्हें सिद्धिंसूरिजी के कर-कमलों से पंन्यास पदवी दी गई थी । पूज्य मेघसूरिजी उनके खास सहपाठी
थे ।
पूज्यश्री ने अनूपचंद मलूकचंद नामक श्रावक के पास अध्ययन करने के लिए भरुच में खास चातुर्मास किया था ।
पूज्यश्री ने पूज्य सागरजी महाराज के पास कपड़वंज, पाटण (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 60saawwwwwwwwws २४१)