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कलापूर्णसूरिजीनो हुँ छु चरणोनो दास, आपे आशुना जीवनमां पाथर्यो छे अजवास; दूध-पाणी सम प्रीत छे मारी जेम माखण ने छास, आपना उपकारे गाजे छे आजे आशु व्यास, नहीं भूलुं उपकार...
कलापूर्णसूरिने... आपना पगले पावन थई खीमईबाई धर्मशाला, अहीं आराधक आव्या एमना घेर लगावी ताला; काले उपवन उजड़ी जाशे, थाशे सुना माला, आज अमारा नयने वरसे आंसुडानी धारा, करजो कांई विचार...
कलापूर्णसूरिने... सिद्धगिरिए आप पधार्या, आनन्द मंगल थाय, बे बे महिना क्यां वीत्या छे, अमने ना समजाय; कालजा केरो कटको नहीं पण, कालजें छूटी जाय, अम हैयामां आप बिराज्या ना लेशो विदाय, विनंती वारंवार...
कलापूर्णसूरिने... __- संचालन : प्रभुलाल के. संघवी
पूज्य आचार्यश्री विजयजगवल्लभसूरिजी :
जिनके हृदय में भक्ति एवं करुणा की धारा निरन्तर बह रही है, ऐसे पूज्य आचार्यश्री के स्पर्श से पापी भी पावन बनते हैं।
जगत् को पावन करने वाली विश्व की इस महान् विभूति का यहां पदार्पण हो रहा है ।
'ये महापुरुष दीर्घायु हों, हमें पावन करते रहें ।' ऐसी हृदय की भावना है ।
गत वर्ष बीलीमोरा में ये पूज्यश्री मिले थे । मुझे ऐसी अपेक्षा नहीं थी फिर भी सायंकाल में विहार के समय पूज्यश्री ने विशेष तौर से कहा था कि विहार नहीं करना है, परन्तु रात्रि में यहां ठहरना है। पूज्यश्री ने रात्रि में मुझे यादगार बनें ऐसी बहुत हितशिक्षा दी ।
पूज्यश्री जब तक जीवित रहेंगे तब तक जगत् को पावन करते रहेंगे । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wooooooooooommmmmms ३१५)