________________
हे गुरुदेव ! शतं जीव शरदः । इतना ही कहकर मैं विराम लेता हूं।
पूज्य आचार्यश्री विजयहेमचन्द्रसागरसूरिजी :
आषाढ़ शुक्ला ११ का दिन ! अनेक पूज्य आचार्य देवों के साथ चातुर्मास-प्रवेश का अवसर !
तलहटी के प्राङ्गण में सामुदायिक चैत्यवन्दन ! उस समय ही विराट् मानव-मेदिनी के अद्भुत दृश्य का सृजन हुआ ।
उसके बाद चातुर्मास में अनेक अनुष्ठान हुए । धीरुभाई ! आप पर्दूषण से पूर्व किसी रविवार को आये होते तो कदापि देखने को नहीं मिले वैसा ऐश्वर्य देखने को मिलता । आप विलम्ब से आये ।
यह ऐश्चर्य कहां से आया ? यह जाज्वल्यमान व्यक्तित्व ही इसका मूल है ।
घी का डिब्बा लेकर जटाशंकर गाड़ी में खड़ा रहा । साफे से डिब्बा बांध कर रेलगाड़ी की चैन से बांधने के कारण रेलगाडी रुक गई । इस पर रेलगाड़ी के ड्राइवर ने उसे पूछा - 'तुमने डिब्बा चैन से क्यों बांधा ? तेरे कारण रेलगाड़ी रुक गई ।'
जटाशंकर बोला, 'रुकेगी ही न ? शुद्ध घी का डिब्बा है।'
ऐसे पुण्य पुरुष हों और यहां ऐश्वर्य नहीं जमे तो फिर कहां जमे भी ?
पूज्यश्री के आकर्षण से ही यहां हमने चातुर्मास किया है। अन्यथा हमने अन्यत्र चातुर्मास करने का विचार किया था ।
पूज्य आचार्यश्री को मैं कहूंगा, 'अब तो आप बिल्कुल समीप आये हैं । (सात चौबीसी धर्मशाला पन्ना-रूपा के पास में है। पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी का चातुर्मास पन्ना-रूपा में था) मारवाड़ के हैं परन्तु आप तनिक भी कंजूसाई न करें ।
धुरन्धरविजयजी महाराज : मारवाड़ी तो उदार होते हैं । पूज्य आचार्य विजयकीर्तिसेनसरिजी :
जिसके प्रत्येक सांस में, तीनों योगों में, पांचो इन्द्रियों में, सातों धातुओं में, असंख्य आत्म-प्रदेशों में जिन-भक्ति एवं जीव-मैत्री रमण करते हों, ऐसे ये पुण्य-पुरुष पूज्य आचार्यश्री
(३१६ 0000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)