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________________ वर्तमान ज्ञान मुझे निरन्तर पर-लक्षी प्रतीत होता है । व्याख्यान आदि में उपयोगी होगा, यह मानकर अध्ययन करते हैं । आत्म-लक्ष से अध्ययन करनेवाले कितने हैं ? * जीव शरीर से भिन्न है यह सत्य है, परन्तु हम उसे भिन्न देख नहीं सकते । दूध और जल मिश्रित हो तो हंस उसमें से दूध-दूध पी लेता है और पानी छोड़ देता है । यही सच्चा विवेक है। __ इस समय हम चेतन होते हुए भी जड़ जैसे बन गये हैं, पुद्गल के पक्ष में बैठ गये हैं, निरन्तर देह-भाव का पोषण कर रहे हैं । अपना षट्कारक चक्र उल्ट घूम रहा है, जो बाधक बन कर सतत कर्म-बन्धन कराता रहता है । अब यदि इसे साधक बनायें तो इसके द्वारा ही कर्म-विसर्जन का कार्य किया जा सकता है । * अभी 'भगवती' में निगोद की अत्यन्त सूक्ष्म चर्चा चल रही है । गोले, निगोद, जीव आदि की चर्चा पढ़ने पर लगता है कि अपने ही आत्म-बन्धु कैसी दशा में हैं ? हम भी एक दिन यहीं थे । किसी सिद्ध का उपकार है कि उसमें से हम बाहर निकले । बाहर निकलकर ठेठ मानव-भव तक पहुंचे, परन्तु यहां आने के पश्चात् सब जीवों का उपकार ले रहे हैं, परन्तु प्रायः किसी पर उपकार करते नहीं है । हमें जीवित रखने के लिए पृथ्वी, पानी, हवा, वनस्पति आदि के कितने जीव निरन्तर अपने प्राणों की आहुति देते रहते हैं ? इस विषय में कभी तो सोचो । * ज्ञान एवं दर्शन दोनों मिलकर ही चारित्र मिलता है। 'ज्ञाननी तीक्ष्णता चरण तेह, ज्ञानं एकत्वता ध्यान गेह ।' - पू. देवचन्द्रजी, अध्यात्मगीता । आगमों में हो तो ही पू. देवचन्द्रजी यहां ऐसी व्याख्या लिखते, अन्यथा कदापि नहीं लिखते । देखो, पू. उपा. यशोविजयजी कहते हैं - ___'ज्ञानदशा जे आकरी, ते चरण विचारो; निर्विकल्प उपयोगमां, नहीं कर्मनो चारो । दोनों एक ही बात कहते हैं । (१२४ wwwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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