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में लगे रहें, यह प्रथम बार देखने को मिला ।'
___ श्रेणिकभाई अपने वक्तव्यों में अनेक बार कहते हैं, 'मुझे जैन धर्म में प्रवेश करानेवाले ये पूज्यश्री हैं । पूज्यश्री की निश्रा में प्रथम बार वि.सं. २०३९ में संवत्सरी प्रतिक्रमण किया । पूज्यश्री के पास नौ तत्त्वों आदि के पाठ सीखने को मिले, जो मेरे जीवन का धन्यतम अवसर था ।'
ऐसे तो अनेक अवतरण दिये जा सकते हैं जो यहां देना सम्भव नहीं है ।
निर्मल एवं निष्कपट हृदय से की जानेवाली भगवान की भक्ति का क्या प्रभाव हो सकता है ? इसका उत्तम उदाहरण पूज्यश्री हैं। पूज्यश्री सही अर्थ में परमात्मा के परम भक्त हैं, जिनकी चेतना निरन्तर परम-चेतना को मिलने के लिए तरस रही हैं, जिनके उपयोग में निरन्तर (नींद में भी) प्रभु रमण कर रहे हैं, जो सर्वत्र प्रभु को देख रहे हैं ।
आनंदघनजी, यशोविजयजी, देवचन्द्रजी या चिदानंदजी आदि प्रभु भक्त महात्माओं को तो हमने देखे नहीं हैं परन्तु ये प्रभु-भक्त महात्मा तो आज हमारे बीच हैं, यह हमारा अल्प पुन्य नहीं है।
प्रभु-भक्त कैसा होता है ? उसके लक्षण गीता में उत्तम प्रकार से बताये हैं - समस्त जीवों का अद्वेषी, मित्र, सबके प्रति करुणामय, निर्मम, निरहंकार, सुख-दुःख में समान वृत्ति वाला, जिससे लोग ऊबे नहीं और जो लोगों से ऊबे नहीं, हर्ष-शोक-भय एवं उद्वेगरहित, निरपेक्ष, पवित्र, दक्ष, उदासीन, प्रेम-घृणासे परे रहनेवाला, व्यथा-रहित, समस्त आरम्भों का परित्याग करने वाला, प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं होने वाला, शोक या इच्छा नहीं करने वाला, शुभअशुभ कर्मों का त्यागी, मित्र या शत्रु - मान या अपमान - ठण्डी या गर्मी - तथा सुख-दुःख में समान वृत्ति रखनेवाला, संग-रहित, निन्दा या स्तुति में समान वृत्ति धारण करने वाला, मौन, चाहे जिस पदार्थ से सन्तुष्ट, घर-रहित, स्थिर बुद्धिवाला एवं भक्तिमय व्यक्ति मुझे (श्री कृष्ण को) अत्यन्त ही प्रिय लगता है ।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहंकारः, सम-सुख-दुःखः क्षमी ॥ १४ ॥