________________
स्थान, वर्ण - क्रियायोग । अर्थ, आलम्बन, अनालम्बन ज्ञानयोग है।
अर्थ आदि का भावन करें तो ही चैत्यवन्दन भाव-चैत्यवन्दन हो सकेगा ।
स्थान-वर्ण में प्रयत्न और अर्थ आदि में विभावन करना है।
इन पांचो (स्थान आदि) में ध्यान रखना कहां ? ऐसा न सोचें । मन का इतना शीघ्र स्वभाव है कि एक साथ चारों में पहुंच जाता है।
मन के बालक को छूट दे देनी है - इन चारों में चाहे जहां जा, छूट हैं ।
स्थान में काय । वर्ण में वाणी ।
अर्थ आदि में मन जोड़ना है। मन को जोड़ना ही कठिन है। मन को जोड़ो । कदाचित् छटक जाये तो पुनः वहां जोड़ो । रोकड़, खाता-बही लिखते समय मन का ध्यान हट जाये तो पुनः वहां मन को जोडते हैं न ? उस प्रकार मन को यहां भी पुनः पुनः जोड़ो । प्रशिक्षण दो तो यह सम्भव है । मन सर्वथा बेवफा नहीं है, कुछ तो मानेगा ही।
रसगुल्लों में मन एकाग्र हो सकता हो तो ऐसे अनुष्ठानों में एकाग्र क्यों न हों ?
__ अशुभ में एकाग्रता के लिए तो प्रयत्न करना ही नहीं पड़ता, शुभ के लिए ही प्रयत्न करना पड़ता है।
यदि मन आप कहो वैसा करने लग जाये तो ही वह आपका सेवक गिना जाता है। मन स्वेच्छानुसार करता रहे और आप विवश हो कर देखते रहो तो उसमें आपका स्वामित्व नहीं है ।
* 'भगवती' में उल्लेख है कि शिवराजर्षि को सात द्वीपोंसमुद्रों का अवधि ज्ञान हुआ और उसने घोषणा की कि जगत् इतना ही है ।
पुद्गल परिव्राजक को पांचवे देवलोक तक ज्ञान हुआ और उसने तदनुसार घोषणा की ।
वर्तमान विज्ञान यही करता है न ? जितना जानता है वही (१८२Wooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)