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सम्पूर्ण है, यही मानता है न ? यही 'कूप-मण्डूक-वृत्ति' है ।
कुंए में रहनेवाले मैंढक ने कुंए के अतिरिक्त कुछ जाना ही नहीं । वह समुद्र को कैसे जान सकता हैं ?
उस समय लोगों में ऐसी बाते फैला कर उनका निराकरण करने के लिए गौतम स्वामी भगवान को पूछते और भगवान उनका निराकरण करते ।।
अधकचरा ज्ञान खतरनाक है। शिवराजर्षि आदि को तो भगवान मिले, परन्तु हमें ? हम अपूर्ण ज्ञान से छलक रहे हैं ।
* क्षपकश्रेणी, केवलज्ञान, अयोगी गुणस्थानक इत्यादि का वर्णन शास्त्रों में उपलब्ध ही है, परन्तु शास्त्र पढ़ने मात्र से कोई केवलज्ञान नहीं हो जाता । इसके लिए आपको शास्त्रों से अतिक्रान्त होना पड़ता है । शास्त्र यहां रुक जाते हैं । शास्त्रों का कार्य केवल दिशा-निर्देशन है, चलना तो हमें है । दूसरा व्यक्ति मंजिल की मुख्य-मुख्य जानकारी देता है, परन्तु चलने का अनुभव तो अनुभव से ही मिलता है न ?
शास्त्र मील के पत्थर हैं । मील के पत्थर यही बताते हैं कि आप कितने चले ? अन्य कुछ नहीं बताते । उस प्रकार शास्त्रों की भी सीमा है, मर्यादा है।
कोई व्यक्ति भोजन की सामग्रियां के नाम बताये, उतने मात्र से पेट नहीं भर जाता । पेट भरने के लिए भोजन करना पड़ता है।
इसी प्रकार से शास्त्रों की बातें जीवन में उतारनी पड़ती हैं, फिर आगे जाकर ऐसी दशा आती है कि शास्त्र भी पीछे रह जायें । यह 'सामर्थ्य योग' है ।।
सामर्थ्य योग से प्रातिभ ज्ञान मिलता है। फिर प्रातिभ ज्ञान केवल ज्ञान तक ले जाता है। योगाचार्यों ने विशेष तौर से 'प्रातिभ ज्ञान' शब्द का प्रयोग किया है।
* जिस भूमिका में हों वहां से प्रारम्भ करना पडता है। हम यहां पालीताना आये । कोई ५०० किलोमीटर दूरी से, कोई हजार कि.मी. की दूरी से और कोई ढाई हजार कि.मी. की दूरी से आये हैं तो जो जितने दूर हों, वहां से उन्हें चलना पड़ता है ।
. हम जिस भूमिका में हों, वहां से प्रारम्भ करना पड़ता कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwwwwwwwwww १८३)