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प्रीतम छवि नैनन बसी (गुजराती आवृत्ति में से)।
पूज्यपाद, अध्यात्मयोगी आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी महाराज साहिब को श्रवण करते समय सुनने का कम, देखने का अधिक होता है । 'परमात्मा ये रहे' कहते समय उनका हाथ हवा में अद्धर हिलता है तब देखने में भी मधुर असमंजस यह होता है कि आप उनकी उस अंग-भंगिमा को देखें, मुंह पर छाये स्मित को देखें या दो नैनों को देखें, हम अपनी आंखों को कहां केन्द्रित करें ?
सद्गुरु के नैन... जहां झलकता है, परमात्मा के प्रति अगाध आदर । कवि रहीम का स्मरण हो आता है - 'प्रीतम छवि नैनन बसी, पर छवि कहां समाय ।' आंखों में परमात्मा ही छा गये हैं, वहां अन्य क्या समा सकता है ? अन्य की छवि कैसे प्रकट हो सकती है ?
और सद्गुरु की यह मोहक अंग-भंगिमा, हवा में लहराताझूलता हाथ, संकेत में पेक कर के सद्गुरु क्या परम चेतना का रहस्य नहीं पकड़ाते ?
और यह निर्मल स्मित, क्वचित् मुस्कान, कभी मुक्त हास्य, परमात्मा को प्राप्त किये उसकी रस-मस्ती उभर आई है स्मित के रूप
और इसीलिए भावक असमंजस में है कि वह अपनी आंखों को केन्द्रित कहां करे ?
- यद्यपि, पता है कि सद्गुरु का सम्पूर्ण अस्तित्व ही द्वार है, जहां से परमात्मा के साथ सम्पर्क हो सकता है ।
गुरु-चेतना के द्वारा परम चेतना का स्पर्श । सद्गुरु हैं द्वार, वातायन, खिड़की । - एक द्वार की या एक खिड़की की पहचान क्या हो सकती है ? शीशम का या सेवन का लकड़ा काम में लिया हो वह खिड़की, ऐसी कोई व्याख्या नहीं हो सकती । छत के नीचे और दीवारों के मध्य हम हों तब असीम अवकाश के साथ जिसके द्वारा संबद्ध हो सकें वह खिड़की । सद्गुरु हमारे लिए एक मात्र खिड़की हैं प्रभु के साथ संबद्ध होने की; नैनों के द्वारा, अंग