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में गुरु ही तीर्थंकर गिने जाते हैं ।
'पंचसूत्र' में सुन्दर वाक्य है कि 'यदि आपको मित्र के रूप में किसी को रखना हो तो गुरु को ही रखें । गुरु ही आपके कल्याण-मित्र बन सकते हैं ।'
परिस्थिति बदलने की सलाह देने वाला मित्र है । मनःस्थिति बदलने की सलाह देने वाला कल्याण-मित्र
मम्मण को पूर्व भव में कैसा मित्र मिल गया था ? कल्याणमित्र मिला होता तो शायद मम्मण का इतिहास भिन्न होता ।
परिस्थिति कर्म के कारण बनती है, परन्तु उससे आपको बदलने की आवश्यकता नहीं है ।
इसीलिए मनःस्थिति बदलाने वाले कल्याण मित्र का संयोग आवश्यक हैं । चंडकौशिक को भगवान महावीर नहीं मिले होते तो क्या दुर्दशा होती ?
कल्याण मित्र को प्रत्येक घटना के केन्द्र में रखें तो कदापि अकल्याण (अहित) नहीं होता ।
गुरु एक तत्त्व है, व्यक्ति नहीं । गुरु की सेवा से तत्त्वों की प्राप्ति होती है ।
अपन (हम) तो सगुरु हैं, नगुरे नहीं हैं। यह पूज्य आचार्यश्री विजयकनकसूरिजी जैसे गुरुदेवों को आभारी हैं । पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी म. : _ 'गुरु-भक्ति-प्रभावेन, तीर्थकृद्दर्शनं मतम् ।
समापत्त्यादिभेदेन, निर्वाणैकनिबन्धनम् ॥' आज हमें एक ऐसे महापुरुष को याद करने हैं जो मात्र कच्छ अथवा गुजरात में ही नहीं, गुप्त रूप से समग्र भारत के जैनों में छाये हुए थे । गुप्त रूप से इसलिए कहता हूं कि उन्हों ने प्रसिद्धि के लिए कोई भी प्रयत्न किया नहीं था, किसी समाचारपत्र आदि में उनकी खबर छपती नहीं थी ।
हम जितने उनके गुण गायेंगे, उतने गुण हममें प्रकट होंगे। यदि हम दोष बोलते हैं तो दोष आते हैं, गुण गायें तो गुण आते हैं। हमें जो चाहिये वह बोलना है । जिस वस्तु को खरीदनी कहे कलापूर्णसूरि - ३00aoooooooooooooooo २३९)