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________________ तत्रभवता प्रेषितं पुस्तकं 'कडं कलापूर्णसूरिए' इति समधिगतं । समवगतञ्च तत्रगतं तत्त्वं किञ्चित् । भवतः पुस्तक-सम्पादन पद्धतिरतीव रमणीयतरा । पुस्तक-पठनावसरे संविदितानुभूति-रेतादृशी यत् तत्रश्रीमतां श्रीमतां पूज्यप्रवराणां 'कलापूर्णसूरीश्वराणां' सन्निकटस्थान एव उपविश्य यथा श्रूयते साक्षात् रूपेण वाचनां प्रवचनं वा । एतादृग्वैलक्षण्यमनुभूय प्रमुदितं आस्माकीनं अन्तश्चेतः ।। एतत्सम्पादन-कार्यकौशल्येन भवद्भ्यां प्रकृष्टं पुण्यकर्म समुपार्जितम्। एतदर्थं धन्यवादाौं भवन्तौ । पुस्तक-प्रेषण-कार्येण भवद्भ्यामावाम् निश्चित-रूपेणोपकृतौ । पुनः स्मरणीयौ आवामिति - जिनचन्द्रसागरसूरिः - हेमचंद्रसागरसूरिश्च पालीताणा 'कडं कलापूर्णसूरिए' पुस्तक मिली है, देखी । अत्यन्त ही चिन्तनीय, मननीय है, सुवाक्यों का भण्डार है । ___ आप संकलनकर्ता हैं, आपको अनेक धन्यवाद । व्याख्यान में कम लोग आते हैं, परन्तु पुस्तक के रूप में प्रकाशित विचार हजारों लोग पढ़ें । अतः हजारों लोगों तक पूज्यश्री की प्रसादी पहुंचाने का भगीरथ कार्य करने के उपलक्ष में अत्यन्त अनुमोदना के साथ धन्यवाद। - हेमन्तविजय वांकी तीर्थ में दी गई वाचना की पुस्तक मिली । अत्यन्त आनन्ददायक सामग्री परोसी गई है। विवरण कहीं-कहीं अपूर्ण प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थ - सोलापुर के चातुर्मास की बात है। वहां पर्युषण के पश्चात् व्याख्यान बन्द करने की बात है । तत्पश्चात् क्या हुआ यह जिज्ञासा असन्तुष्ट रही है। - आचार्य विजयप्रद्युम्नसूरि शान्तिनगर, अहमदाबाद-१३. (३६०0mmooooooooooo6000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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