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________________ आया मे सामाइअस्स अट्ठे' यह कितना सुन्दर वाक्य है ? मेरा अपना तो सब भूल गया हूं, परन्तु यहां जो बोलता हूं वह तो भगवान स्मरण करा देते हैं । 4 * आत्मा ही दूल्हा है । आप बिना दूल्हे की बारात में कभी गये हैं ? अपनी साधना के मूल में मुख्य आत्मा ही है, उसे ही हम भूल गये हैं । * दुर्गुणों के साथ ऐसा व्यवहार करें कि अपने आप स्थान छोड़ कर वे भाग जायें । अनचाहे अतिथियों (मेहमानों) क्रोध आदि दुर्गुणों को मिष्टान्न खिलाते रहोगे तो वे कदापि नहीं जायेंगे । जिनके क्रोध आदि स्वस्थ हैं उनकी आत्मा अस्वस्थ रहेगी । जिनके क्रोध आदि अस्वस्थ हैं उनकी आत्मा स्वस्थ रहेगी । भगवान के ये गुण सुनकर लगना चाहिये कि ऐसे गुण तो गृहस्थ जीवन में ही आ जायें तो कितना उत्तम होगा ? कतिपय आत्मा ही ऐसी होती हैं कि जो स्वाभाविक रीति से ही कम बोलती हैं, आवश्यक हो वही बोलती हैं । परोपकार भाव सहज ही होना चाहिये, दान आदि गुण भी होने चाहिये । गांधीधाम वाले देवजीभाई में ये सब गुण थे । अनेक बार विचार आता है कि ये गुण कहां से आये होंगे ? I नाम भी 'देव' देव तुल्य गुण लेकर ही आये थे । धर्मराजा का सेनापति सम्यग्दर्शन है और मोहराजा का सेनापति मिथ्यादर्शन है । सम्यग्दर्शन को प्रधानता नहीं देंगे तो मिथ्यात्व दुर्गति में ढकेले बिना नहीं रहेगा । जीवों की करुणा और प्रभु भक्ति इन दोनों से ही सम्यग्दर्शन प्रकट होता है । भक्ति प्रकट होने पर जीवों के प्रति प्रेम जगेगा ही, क्योंकि भगवान उत्तम चैतन्य है । उनके प्रति प्रेम प्रकट होने पर ही जगत् में फैले हुए समस्त चैतन्यों के प्रति प्रेम प्रकट होगा ही । 'उत्तम संगे रे उत्तमता वधे । रागी संगेरे राग - दशा वधे, थाये तेणे संसारोजी ।' निरागीथी रे रागनुं जोडवुं, लीजे भवनो पारोजी । कहे कलापूर्णसूरि ३ 6.०० ३०९
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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