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रागी का संग करोगे तो राग बढ़ेगा । त्यागी का संग करोगे तो त्याग बढ़ेगा । संसार में से कदापि निकलना नहीं हो तो ही राग-दशा बढ़ाये ।
संसार में से निकलना हो तो वीतराग का राग करें, व्यक्ति का नहीं । तद्गत गुणों का राग करें । उनका राग आते ही, वे गुण आपके हो जायेंगे । दोषों के प्रति धिक्कार-भाव होते ही वे दोष आप में से भाग जायेंगे । दोषों को भगाने की हमें उतावल नहीं है क्योंकि हमें विश्वास है : दुर्गति में नहीं ही जायेंगे । हमारे चाचा-मामा वहां बैठे हैं, जो बचा लेंगे !
यहां ४०० साध्वीजी हैं । क्या प्रत्येक बार ऐसा अवसर मिलेगा ? अवसर मिला है तो उपयोग क्यों न करें ? दोषों के नाश एवं गुणों की वृद्धि के लिए प्रयत्न क्यों न करें ? इस समय नहीं करेंगे तो कब करेंगे ?
तीर्थंकर भगवान का अनुशय अस्थायी होता है । क्रोध शायद आयेगा सही, परन्तु हलदरिये रंग की तरह उड़ जाता है ।
भगवान कृतज्ञता के स्वामी हैं । वे उपकारी को कदापि नहीं भूलते । उपकारी को भूलने से उनके द्वारा प्राप्त गुण भी चला जाता है । उपकारी को भूलने से कौन से आचार में दोष लगता है ? दर्शनाचार में दोष लगता है ।
अर्थात् मिथ्यात्व का उदय हो तो ही गुरु का अपलाप होता है । गुरु ने आपको दीक्षा देकर आपका संग्रह किया, यही गुरु का बड़ा उपकार है ।
एक छोटी पुस्तिका अथवा एक अक्षर पढ़ाने वाले का भी उपकार नहीं भूला जाता तो गुरु का उपकार कैसे भूला जाये ? (८)अनुपहतचित्ताः ।
__ भगवान का चित्त कदापि उत्साह-रहित नहीं होता, निराश नहीं होता । वैसे ही उत्साह के बिना तीर्थंकर नाम-कर्म नहीं बंधा । ज्वलन्त उत्साह चाहये उसके लिए । जगत् के समस्त जीवों का उद्धार करने के लिए कितनी ऊर्जा चाहिये ? उसके लिए कितना वीर्योल्लास चाहिये ?
तीर्थंकर के समान लोकोत्तर उपकार कोई भी नहीं कर सकता । (३१०0000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)