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होता है। छोटे से बीज में से बडा जंगल उत्पन्न होता है । मरुदेवी एक थे, परन्तु उनकी सन्तति कितनी थी ? कितने समय तक यह परम्परा चली ?
इन तीन पदों में ध्यान के बीज हैं। उन शब्दों में प्राणों का संचार करने वाले भगवान हैं, ग्रहण करने वाले गणधर हैं । इसीलिए उन्हें विशिष्ट ध्यान लगता है और उसमें से द्वादशांगी का सृजन होता है । वही त्रिपदी मैं बोलूं और आप सुनें तो द्वादशांगी का सृजन नहीं होता ।
* यहां लिखा है - 'धर्मं प्रति मूलभूता वन्दना ।'
आन्तरिक भाव से वन्दन नहीं हो तब तक धर्म का जन्म नहीं होता । मन-वचन-काया तीनों नम्र बनें तो ही भाव-नमस्कार आयेगा ।
* भूख प्रत्येक व्यक्ति को लगती है, परन्तु जिज्ञासा किसी विरले को ही होती है । 'इसका क्या अर्थ होता है ?' यह जानने की इच्छा ही जिज्ञासा है । जिज्ञासा के बिना सम्यग्ज्ञान नहीं होता, सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यक् क्रिया नहीं होती । मिथ्यात्वी को यह कदापि प्राप्त नहीं हो सकती ।
(२) विधि-परता :
किसी भी वस्तु के निर्माण के लिए विधि का ज्ञान चाहिये । खिचडी बनानी हो तो भी ज्ञान चाहिये । हण्डिया में कैसे रखनी ? चावल और मूंग कितने डालने ? आदि बातें जाने बिना क्या खिचड़ी बनाई जा सकती है ?
* आप धैर्य रखें; भगवान एवं भगवान का शासन आपको सब देने के लिए तैयार ही है। भगवान पर अटल आस्था होनी चाहिये - 'देशो तो तुमही भलूं, बीजा तो नवि याचं रे ।'
- पूज्य उपाध्याय यशोविजयजी यह अचल धैर्य है। भगवान मिलने के पश्चात् उपाध्याय महाराज गाते हैं -
_ 'मारे तो बननारूं बन्यु ज.छ, हूं तो लोकने वात सिखाऊं रे ।'
'धन्य दिन वेला धन्य घड़ी तेह ।' (कहे कलापूर्णसूरि - ३wwwwwwwwwwwwwwwwwwww १११)