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___ 'ते केवल निष्कामी रे ।' कामनाएं समाप्त हो जायें तो ही अपने नाम एवं रूप का प्रभु में विसर्जन हो सकता है तो ही 'अहं' का 'अर्ह' में विलय हो सकता है।
__भक्ति के बिना ज्ञान की सफलता नहीं है । महान विद्वान जंबूविजयजी म. जिनका नाम आपने सुना ही होगा । वे आगमों के श्रेष्ठ सम्पादक-संशोधक के रूप में प्रसिद्ध हैं, परन्तु उनका प्रभुप्रेम तो देखो ।
बीस माला गिने बिना कभी पच्चक्खाण पारते नहीं । भक्ति-युक्त ज्ञान ही प्रवर्तक ज्ञान बन सकता है ।
भक्ति-रहित ज्ञान तो केवल अहंकार-पोषक एवं अहंकारप्रदर्शक ही कहलाता है ।
* 'सभी जीव मोक्ष में जायें, बाद में ही मैं मोक्ष में जाऊंगा । जगत् के समस्त जीवों के पाप मुझ में संक्रान्त हो जायें ।' बुद्ध की ऐसी करुणा की बातों से ही सिद्धर्षि प्रभावित हो गये थे। उन्हें हुआ होगा - 'अपने भगवान तो वीतराग हैं । हमें संसार में भटकते छोड़कर वे मोक्ष में चले गये । करुणा तो सचमुच बुद्ध की ही है।'
__इस प्रकार सोच-सोचकर इक्कीस बार बौद्ध भिक्षु बनने के अभिलाषी सिद्धर्षि गणि का मस्तिष्क ठिकाने लाने वाला यह 'ललित विस्तरा' है। यह 'ललित विस्तरा' इस समय वाचना में चलता है।
प्रश्न : सम्पूर्ण विधिपूर्वक स्थान, वर्ण, अर्थ, आलम्बन आदि सहित चैत्यवन्दन करने वाले कितने हैं ? अतः अपवाद मार्ग से अविधि से चैत्यवन्दन हो तो क्या हर्ज है ?
उत्तर : भाई ! आप अपवाद-उत्सर्ग के सम्यग् ज्ञाता नहीं हैं । अपवाद किसे कहते हैं ? चाहे जिसे अपवाद नहीं कहा जाता । मार्ग पर चढ़ाये वह अपवाद कहलाता है, जो उन्मार्ग का पोषण करे उसे अपवाद नहीं कहा जाता । इस प्रकार तो अविधि की ही परम्परा चलेगी । अपवाद सदा अधिक दोषों की निवृत्ति के लिए होता है । जंगल में मुनि जाते हों, और उस समय दोषयुक्त गोचरी वापरनी पड़े तो अपवाद है, क्योंकि उपवास तो अधिक समय तक नहीं किये जा सकते । (५०wwwsas an is an am
कहे कलापूर्णसूरि - ३)