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इस समय दिखाई देने वाली एकता सिर्फ शब्दों में न रहे, जीवन में उतरे वैसी अपेक्षा है ।
पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी :
भगवान द्वारा स्थापित यह संघ दीर्घ काल तक जगत् का मंगल करे वैसी शक्ति भगवान ने स्थापित की है ।
'धम्म-तित्थयरे जिणे ।' सम्पूर्ण विश्व को केवलज्ञान के प्रकाश से भर देनेवाले ये प्रभु उपकारों की वृष्टि करते हैं वह स्वभाव से ही है । सूर्य की तरह उपकार करना उनका स्वभाव है ।
इस संघ पर कितना बोल सकते है? हमारी शक्ति परिमित है। स्वयं तीर्थंकर भी वह नहीं सकते । मात्र 'नमो तित्थस्स' कह कर बैठते हैं । इतने में क्या नहीं आया ?
'मुझसे भी पूजनीय यह संघ है।' संघ को नमस्कार करके स्वयं तीर्थंकरो ने यह कह दिया ।
धुरन्धरविजयजी ने पूछा था - 'भगवान से भी पूज्य हो उस संघ का स्थान नवकार में प्रथम क्यों नहीं ? अन्त में भी क्यों नहीं ?
मैं ने कहा, 'नवकार संघ से बाहर नहीं है । नवकार में संघ को नमस्कार है ही । तीर्थंकर स्वयं कहते हैं कि आप इस तीर्थ को नमस्कार करो ।'
इस शाश्वत मन्त्र में हम क्या भूल निकाल सकते हैं ? अपनी बुद्धि कितनी है ?
___ 'नमो' शब्द प्रथम है, जो तीर्थंकर बनने की कला है। यह कला आपको तीर्थंकर बनाती है। जितने तीर्थंकर बने हैं, वे इसी प्रकार संघ की भक्ति से ही बने हैं ।
चतुर्विध संघ खान है, जिसमे पांचौं परमेष्ठी तैयार होते हैं ।
जब तीर्थंकर गृहस्थ जीवन में थे तब भी उनके माता-पिता किसी तीर्थंकर के श्रावक-श्राविका ही थे । अर्थात् संघ में से ही तीर्थंकर तैयार होते हैं ।
इस संघके गुण-गान करने की शक्ति नहीं है, फिर भी गुणगान करते हैं, ताकि संघ के ऋण से कुछ मुक्त हो सकें । . जीर्णोद्धार मात्र जिनालय या उपाश्रय का ही नहीं, चतुर्विध
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6000oooooooooooooo00 २५९)