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________________ हरिभद्रसूरिजी यही कहते हैं : मुझे ही नहीं, इस ग्रन्थ-रचना के द्वारा सबको फल मिले । आप भोजन करो तो तृप्ति मिलेगी ही । इसमें मांगना नहीं पड़ता कि हे भोजन ! तू मुझे तृप्ति दे । __ इस प्रकार आप धर्म करें तो आपको फल मिलेगा ही । मांगने की आवश्यकता ही नहीं है । मात्र अन्य के लिए आप भला चाहें । ऐसे करुणाशील हरिभद्रसूरिजी का नाम मुझे पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. के द्वारा वि. संवत् २०१३ में मांडवी में मिला था । फिर तो इतना रस उत्पन्न हुआ कि जितना बैठता उतना गुरु के मुख से लेकर बिठाता । प्रारम्भ में वैसे भी सूत्र के रूप में आता है, तत्पश्चात् अर्थ आते हैं और फिर तदुभय के रूप में तथा ऐदंपर्य के रूप में तो भगवान की कृपा से ही आता है । मेरे श्रम से मुझे मिला हो वैसा नहीं लगता । भगवान ने कृपा-वृष्टि की और मुझे मिला यही लगता है। यदि हरिभद्रसूरि पर बहुमान बढ़ेगा तो ही इस ग्रन्थ का हार्द हमें समझ में आयेगा । ऐसा हार्द समझ में आयेगा कि एक ग्रन्थ से अनेक ग्रन्थों का ताला खुल जायेगा । अभी 'ललित विस्तरा' में सामर्थ्य योग चल रहा है, जिसके तात्त्विक एवं अतात्त्विक दो भेद हैं । हम सबको अतात्त्विक सामर्थ्य योग मिल ही गया है, क्योंकि घर आदि का परित्याग किया हैं। गृहस्थ जीवन में निश्चल ध्यान नहीं हो सकता क्योंकि वैसा वातावरण घर में जमता ही नहीं । मुझे ऐसी प्रेरणा नहीं मिली होती तो मैं घर में ही रहा होता । यहां बाह्य वातावरण, बाह्य तप आदि कितने सहायक होते हैं ? . बाह्य तप अभ्यन्तर तप को बढ़ाने वाला है । बाह्य तप निकाल देने जैसा नहीं है । जिस दिन उपवास किया हुआ हो उस दिन ध्यान आदि में अत्यन्त ही मन लगता है, ऐसा मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं । इस बाह्य तप की उपेक्षा न करें । . अभ्यन्तर तप के लक्ष्य बिना का बाह्य तप सफल नहीं होता । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 90066650mm BOOBB00 २१३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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