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________________ मन-वचन-काया का निरोध तो अयोगी ही कर सकता है तब तक उन्हें शुभ में प्रवृत्त करें, कर्म-बंध से छुडायें ऐसे कार्य करना ही आधार है; परन्तु वे इस समय कर्मों के अधीन हैं । वे संकल्प-विकल्प कराते हैं । मोह के मुख्य दो पुत्र हैं - राग एवं द्वेष । द्वेष के पुत्र हैं क्रोध और मान तथा राग के दो पुत्र हैं - माया व लोभ । इस प्रकार विशाल परिवार है मोह का । महा पुण्योदय से जैन-शासन मिल गया है। उसके रहस्य बतानेवाले गुरु मिल गये हैं । अतः यह जीवन ऐसा जियें कि कर्मों के जाल में से मुक्त बन सकें । भूल चाहे जिसकी हुई हो, क्षमा देने-लेने में कोई आपत्ति नहीं है । चण्डप्रद्योत ने अपराध किया फिर भी उदयन ने क्षमा याचना की । वह तो आराधक बना ही । हमें भी क्षमा को अपना कर आराधक बनना है । द्वेष कांटा है। भगवान उसे निकालना चाहते हैं । दूसरा कोई निकाल नहीं सकता । नित्य देवसिअ-राइअ, पन्द्रह दिन बाद पक्खी, चार महिने चौमासी, बारह महिनों में संवत्सरी प्रतिक्रमण करने का इसीलिए विधान है। बारह महिनों के बाद प्रतिक्रमण नहीं करो तो आपका कषाय अनंतानुबंधी कहलाता है और वह आपको दुर्गति में ले जाता है । क्षमा के आलम्बन से कषायों को नष्ट करने हैं । स्वयं उपशान्त बन कर, दूसरे को उपशान्त बनाकर हमें आराधक बनना है । श्रमण जीवन का सार 'उपशम' है । मुनि का दूसरा नाम भी 'क्षमाश्रमण' है । मुख्य रूप से कल्पसूत्र साधुओं के लिए ही हैं । कोई भी कार्य गुरु को पूछे बिना अथवा ज्येष्ठ व्यक्ति को पूछे बिना नहीं किया जा सकता । यदि करते हैं तो विराधक बनते हैं, क्योंकि 'आयरिया पच्चवायं जाणंति ।' सर्वतोमुखी ज्ञान गुरु के पास होता है। .. गोचरी को देखते ही गुरु को गन्ध से मालूम होने पर उन्हों (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wasanasamosamasasansom २९१)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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