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________________ ____ पू. हेमचन्द्रसूरिजी के साथ, गिरनार अंजनशलाका, वि.सं. २०४० २-९-२०००, शनिवार भादौं शुक्ला-४ : खीमईबेन धर्मशाला (कल्पसूत्र-वांचन के बाद चतुर्विध संघ के समक्ष) जिसके लिए हमने व्याख्यान सुने, कर्त्तव्य किये, वह 'क्षमापना' _ 'खमिअव्वं खमाविअव्वं,उवसमिअव्वं उवजमाविअव्वं ।' यह अपना धर्म है। छोटे-बड़े सब परस्पर क्षमापना करते हैं । क्षमा मांगनी भी है और देनी भी है। जब तक कषाय नष्ट नहीं हुए, तब तक उन्हें दबे हुए शत्रु समझें । वे कभी भी उदय में आ सकते हैं । मोह का कार्य है - जीव को संकल्प-विकल्प में डालना । चारित्र का कार्य है - जीव को संकल्प-विकल्प से छुड़वाना। दोनों अपना कार्य करते हैं । आत्मा जहां रहे उसकी जीत है। आत्मा का उपयोग जब धर्मराजा में होता है तब साधना होती है और जब मोहराजा में होता है तब विराधना होती है । इसी बात को सब भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाते हैं । 'आश्रवः सर्वथा हेयः उपादेयश्च संवरः ।' - वीतराग स्तोत्र (२९०6656565 66 65 666666666666666 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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