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* जब तक भगवान के दर्शन कराने वाले ऐसे गुरु होंगे तब तक जैन-शासन की जाहोजलाली रहेगी ही । ऐसे गुरु अपनी नहीं, परन्तु भगवान की महिमा जन-जन के अन्तर में प्रतिष्ठित करते
भक्त कदापि यह नहीं कहेगा कि 'मैंने किया ।' परन्तु वह कहेगा कि भगवान की कृपा से हुआ । वह कहेगा, 'देव-गुरुपसाय' से हुआ । कहने के लिए नहीं, परन्तु हृदय से ही कहेगा । यही बात अहंकार-नाशक है ।
योगशास्त्र के अनुभव-प्रकाश नामक बारहवे प्रकाश में लिखा है कि गुरु की कृपा के प्रभाव से योगी उस स्थिति तक पहुंचता है, जबकि उसे मोक्ष की भी परवाह नहीं होती । वह कह सकता है कि 'मोक्षोऽस्तु वा माऽस्तु ।'
* मैं तो इतनी विशाल सभा के प्रत्येक सदस्य के हृदय में भगवान एवं गुरु के प्रति हृदय में विद्यमान बहुमान देख रहा
* इस संघ की जय जय कार हो रही है, जिसके प्रभाव से साधु-साध्वी आदि को आहार, वस्त्र आदि के विषय में चिन्ता नहीं करनी पड़ती ।
जो संघ अपने लिए (साधु-साध्वीजी के लिए) इतना करता हो, उस संघ के लिए कुछ करने का उत्तरदायित्व हमारा है ।
हमें भी इस पाट पर बिठाने वाले गुरु-भगवन् ही हैं । यदि उन्हों ने हमें पाट पर नहीं बिठाया होता तो हम भी आपकी तरह भटकते ही होते ।।
_ 'गुरु तो जिन हैं, केवली हैं, भगवान हैं ।' ऐसा 'महानिशीथ' में पढ़ा तब मैं नाच उठा । गुरु-तत्त्व का कितना सम्मान ?
सिद्धचक्र में भगवान के लिए दो पद, परन्तु गुरु के लिए तीन पद हैं । इससे भगवान का महत्त्व नहीं घटता । भगवान स्वयं ही कहते हैं कि 'जो गुरु का मानता है, वह मेरा मानता है।'
ऐसे गुरु की भक्ति करोगे तो मुक्ति दूर नहीं है । . गुरु की भक्ति कदाचित् नहीं हो सके तो भी आशातना तो
कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6 monsomwwwwwwmom १४७)