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पूज्य आनन्दघनजी ने कहा है -
'दहतिग पण अहिगम साचवतां,
इकमना धुरि थइए रे...' एक-मना दस त्रिकों से बना जाता है । एकमना अर्थात् ही उपयोग सहित साधक ।
योग की व्याख्या-मोक्ष (भगवान) के साथ जोड़ दे वह योग
मोक्ष एवं भगवान कहां भिन्न हैं ? संक्षेप में - आत्मा को जो परमात्मा बना ले वह योग
इच्छायोग आदि में भी योग शब्द का प्रयोग हो चुका है। इच्छायोग रुचि है। सामर्थ्य-योग अनुभूति है।
अनुभूति का मूल रुचि है । यदि रुचि में ही कमी (त्रुटि) हो तो अनुभूति की आशा छोड़ देनी चाहिये ।।
प्रत्येक अनुष्ठान उपयोगपूर्वक हो तो काम हो जाये, समस्त क्रियाएं भाव आवश्यक बन जायें ।
उपयोग न हो तब तक चैत्यवन्दन, प्रतिक्रमण आदि द्रव्यक्रिया ही कहलाती हैं ।
उपयोग मिल जायेगा तो भगवान के प्रति बहुमान उत्पन्न होगा ।
अर्थ में मन सम्मिलित हो जाये तो भगवान के प्रति बहुमान उत्पन्न होगा ही।
'नमुत्थुणं' का अर्थ जानने पर ही सिद्धर्षि को भगवान की करुणा समझ में आ गई । इसीलिए वे जैन-शासन में स्थिर हुए ।
उपयोग पूर्वक आप आनन्दघनजी आदि के स्तवन बोलें तो आपकी चेतना झंकृत हो उठेगी ।
'अभिनंदन जिन दरिसण तरसिये...' यह बोलते समय आपकी चेतना दर्शन के लिए तड़प का अनुभव करेगी ।
चन्द्रप्रभु स्वामी का स्तवन बोलते समय लगेगा -
अनादिकाल में ऐसे दर्शन कहां हुए हैं ? अब दर्शन हुए (१८०00wwwwwwwwwwws कहे कलापूर्णसूरि - ३)