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________________ प्रभु दर्शन में लीनता, वि.सं. २०४१, जयपुर ११-८-२०००, शुक्रवार सावन शुक्ला-१२ * स्वाध्याय साधुओं का भोजन है, आहार है । जितना स्वाध्याय प्रबल होगा, उतनी आत्मा की पुष्टता प्रबल होगी। स्वाध्याय से मन शास्त्रों में रहता है, जिस से ध्यान की पूर्व भूमिका तैयार हो जाती है । स्वाध्याय प्रेमी सहज ही ध्यान कर सकता है । इसी लिए अभ्यंतर तप में स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान बताया है । * उपयोग एवं ध्यान एकार्थक हैं, पर्यायवाची हैं । उपयोग अर्थात् ध्यान । ध्यान अर्थात् उपयोग । उपयोग नहीं रहने के कारण ही हमारी क्रियाएं ध्यान नहीं बनती । उपयोग-रहित क्रियाएँ द्रव्य-क्रिया कहलाती हैं । स्वाध्याय में वाचना, पृच्छना, परावर्तना तक फिर भी द्रव्यक्रिया हो सकती है, परन्तु अनुप्रेक्षा उपयोग के बिना नहीं हो सकती । अतः अनुप्रेक्षा ध्यान है । केवल उपयोग को सिद्ध कर लें तो सब ध्यान रूप बन जायें । कहे कलापूर्णसूरि - ३ 60 SESS SSSSSSSSSS १७९)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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