SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरु आपका प्रमाद नष्ट करके आपको क्रिया में जोड़ते है। इसीलिए फिर क्रिया-वंचकता प्राप्त होती है । पू. मुनि धुरंधरविजयजी म.: क्रिया में लगा रखेंगे तो फिर ध्यान कब करेंगे ? पूज्यश्री : क्रिया करते करते निर्विकल्प में जाते हैं । पू. धुरन्धरविजयजी म. : क्रिया करते करते वृद्ध हो गये । इस समय तो ध्यान का क्रेझ चलता है । पूज्यश्री : मैं कहां ध्यान का निषेध करता हूं? कहता हूं कि सविकल्प में से ही निर्विकल्प में जा सकते हैं । पहले मनवचन-काया को शुभ में परिवर्तित करो, उसके बाद निविकल्प में जाओ। सीधे सातवी मंजिल पर नहीं जा सकते । पू. धुरन्धरविजयजी म. : क्या गुरु 'ध्यान' नहीं दे सकते ? अनेक गुरु दावा तो करते हैं । पूज्यश्री : भले ही दें, देखेंगे । पू. धुरन्धरविजयजी म. : कैसा देंगे ? पूज्यश्री : वे लोग जैसा सीखे होंगे, वैसा ही देंगे न ? आपके गुरु महाराज पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी महाराजा के साहित्य का पठन करें । उसमें यह सब है । * 'सामायिक-धर्म' पुस्तक उनकी ही है, उनके ही पदार्थ हैं । केवल नाम मेरा है । उनके ही परामर्श से 'ध्यान-विचार' ग्रन्थ पढ़ने के लिए निकाला था । मैं ने वह निकाला और मुझे प्रतीत हुआ कि मुझे साक्षात् सर्वज्ञ मिल गये । पूर्वाचार्यों के अक्षर पढ़ने से ही 'जैन ध्यान पद्धति' पर परम श्रद्धा हुई । जहां आपकी रुकी हुई साधना है, उसे आगे बढ़ाने के लिए जैन-शासन बंधा हुआ है। मन में कोई दुःख न लगायें । जैन-शासन के प्रति प्रेम से ही यह सब बोला हूं। आप उसका आदर करके निर्विकल्प समाधि प्राप्त करें, यही मनोकामना है । (१७८00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy