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चाहे जितना महान विद्वान पण्डित हो, परन्तु जब तक वह भावनाओं से भावित नहीं बनता, तब तक वह मोह के आक्रमण से बच नहीं सकता । इसीलिए भावनाओं को धर्म-वृक्ष का मूल कहा है ।
हम सब तीसरे आवश्यक के काउस्सग्ग में जो गाथा बोलते हैं - "सयणासणन्न-पाणे चेइअ जइ सिज्जकाय-उच्चारे ।
समिइ भावणा गुत्ति, वितहायरणे अ अइआरो ॥'
ज्ञानियों को हमारे प्रति परम दया है। वे सतत इच्छा करते हैं कि हम किस प्रकार निर्मल रहें ? इस गाथा में समिति के साथ भावना आई कि नहीं ?
भावना अत्यन्त गहरा शब्द है । 'शान्त सुधारस' ग्रन्थ का प्रथम श्लोक ही देखें । आपको उसकी महिमा ज्ञात होगी ।
सर्वोत्तम साधक साधु है । यदि वह आत्म-साधना नहीं करे तो अन्य कौन करेगा ? यह लक्ष्य तो होना ही चाहिये ।
इसके लिए भावना आवश्यक हैं, क्या यह लगता है ? जिस दिन भावना न भायें उस दिन अपराधी हों, ऐसा लगता है ? उपर्युक्त गाथा में आप देखते हैं - भावना नहीं भाने से अतिचार लगता है । दो-तीन वर्षों तक पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. के पास रहने का अवसर आया । अनेक बार वे कहते - 'सम्पूर्ण आगमों को सूत्र, अर्थ तदुभय से भावित बनाने की तो शक्ति नहीं है, परन्तु एक 'नवकार' को अच्छी तरह पकड़ लूं तो भी पर्याप्त है। इसीलिए मैंने नवकार पकड़ा । उनकी बातों से समझ में आया कि हम धूमधाम में पड़ गये । यह महत्त्व की वस्तु छूट गई ।
मन स्थिर नहीं रहने से कदाचित् ध्यान नहीं हो सके, परन्तु भावना तो भा सकते हैं न ? यद्यपि ध्यान भी ध्याने की वस्तु है । इसीलिए अतिचार में हम बोलते हैं - ___ 'आर्त्त-रौद्र ध्यान ध्याया, धर्म ध्यान-शुक्ल ध्यान ध्याया नहीं'
पू. धुरन्धरविजयजी म. - व्याख्यान में धर्म-ध्यान आ ही गया न ?
पूज्यश्री - आ जाये तो बलिहारी है ! उन्हें नमस्कार, परन्तु आ जाता है, ऐसा आपको लगता है ? (८ooooomness
कहे कलापूर्णसूरि - ३)