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________________ अब तो हरिभद्रसूरिजी की बात मानोगे न ? 'इस चैत्यवन्दन से अधिक कोई श्रेष्ठ कृत्य नहीं है।' यह बात स्वीकार करोगे न ? जिनालय में आप अपनी आंखों को भगवान की आंखों में जोड़ दें । आप अपना मन प्रतिमा में जोड़ दें । आंखें प्रभु की आंखों से जुडेंगी तो तारक ध्यान होगा । प्रतिमा में मन जुड़ेगा तो रुपस्थ ध्यान होगा । इसीलिए यहां लिखा है - 'भुवनगुरौ विनिवेशितनयनमानसः ।' * चैत्यवन्दन के समय सूत्र अस्खलित आदि गुणों पूर्वक बोलने हैं । उनके अर्थो का अनुस्मरण भी तब होना चाहिये । यहां 'अनुस्मरण' इसलिए लिखा है कि बोलते समय पीछे-पीछे भगवान का वैसा-वैसा स्वरूप याद आता जाये । (अनु अर्थात् पीछे) आठ सम्पदा (विश्राम स्थान) पूर्वक 'नमुत्थुणं' बोलना है । 'नमुत्थुणं' में ३२ आलावा हैं। अन्य आचार्य 'वियट्टछउमाणं' सहित ३३ आलावा मानते हैं । यह भक्तियोग है। भक्तियोग के बिना सब शुष्क एवं निष्फल है। भक्ति अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र आदि व्यर्थ हैं, यह तो जानते हैं न? यदि सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हुआ तो हममें और अभव्यों में कोई अधिक अन्तर नहीं है। अन्यथा इस स्थान पर तो अभव्यों की तरह हम भी अनन्तबार आ गये हैं, परन्तु बीज नहीं पड़ा था अतः सभी प्रयत्न व्यर्थ गये । समकित बीज है । यह तो आपको मिला हुआ ही है। गृहस्थ-जीवन में ही मिला हुआ है। मैं तो केवल याद कराता हूं। भूल तो नहीं गये न ? तर मोक्ष के साथ जोड़ दे वह योग है । - - हरिभद्रसूरि कहे कलापूर्णसूरि - ३ mmmmmmmmmmmmmmmon ६७)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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