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________________ पटु अभ्यास एवं आदर से वैराग्य को आपने ऐसा वश में किया कि जो किसी जन्म में आपका साथ न छोड़े । दुःख में तो सबको वैराग्य आता है, सुख में भी आपको वैराग्य है । पूज्य हेमचन्द्रसूरिजी की प्रभु को यह स्तुति है । न खेदः संयमाध्वनि । साधना में आलस आना, हताश-निराश होना, खिन्न, उद्विग्न होना, यह सब सत्त्वगुण की कमी के कारण होता है । भगवान का भक्त भय, द्वेष एवं खेद से परे होता है । भय, द्वेष एवं खेद हो तब तक साधना की पूर्व भूमिका भी तैयार नहीं होती । आगे की तो बात ही कहां ? क्या हम भय, द्वेष, खेद से कुछ अंशों में भी मुक्त हुए हैं ? क्या हम में मुक्त होने की भावना जगी है ? "सेवन-कारण पहेली भूमिका रे, अभय, अद्वेष, अखेद ।' ___- पूज्य आनन्दघनजी ये 'योगदृष्टि समुच्चय' के पदार्थ हैं । निष्प्रकम्पता सद्ध्याने ध्यान में भगवान को अत्यन्त निष्प्रकम्पता होती है । मेरु तुल्य भगवान अकम्प होते हैं । उन्हें कौन डिगा सकता है ? ऋषभदेव भगवान को कर्म क्षय करने में हजार वर्ष लगे थे, परन्तु महावीर स्वामी ने मात्र साढ़े बारह वर्षों में ही उनसे भयंकर कर्मों का क्षय कर दिया, जो इस सत्त्वगुण के कारण ही वे कर पाये । * कर्म का ऋण चूकता न करें तो कर्म हमें छोड़ने वाले नहीं हैं । भगवान को भी नहीं छोड़ते तो हमें कैसे छोड़े, क्यों छोड़े ? कई बार प्रश्न उठता है कि महामुनियों को रोग क्यों होते होंगे? पद्मविजयजी, कान्तिविजयजी, भद्रंकरविजयजी आदि को रोग हुए थे । ऐसा उत्तम जीवन जीने वालों को भी ऐसे रोग ? कर्म समझते हैं कि ये महात्मा मुक्ति के मार्ग पर हैं। मंजिल समीप है । मुक्ति तक हमारी पहुंच नहीं है 1 स्वर्ग में सुख के सिवाय कुछ नहीं है । अतः अभी ही सब हिसाब चूकता करने दो । (कहे कलापूर्णसूरि-३ 68wwwwoooooooooooom ३४३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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